Friday, March 14, 2014

गळियां में आवै गौरा झूमती

जब-जब होली का त्योंहार नजदीक आता है, मन अवर्णनीय उमंग, उल्लास से भर उठता है। यह उमंग होली के रंग खेलने से कहीं अधिक उन 15 दिनों को जीने की होती है, जिसमें आस-पड़ौस कभी गवर पूजे जाने के दिनों की याद जुड़ी हुई है। इधर होलीका दहन हुआ, उधर गवर पूजन शुरू। सामुहिक स्वर माधुर्य, ‘पातळिया ईसर, गळियां में आवै गौरा झूमती’ और ऐसे ही दूसरे गवर गीतों से ही भोर की आंख खुलती। संगीत स्वरों की वह सुबह इस कदर सुहानी होती कि मन चाहकर भी उसे कहां बिसरा पाया है! पर उत्सवधर्मिता के दिन पंख लगाकर उड़ जाते। पखवाड़े बाद गणगौर मेले में गवर विसर्जन के साथ ही जैसे उमंग-उत्साह के दिन बीत जाते। 
गणगौर ऐसा ही लोक पर्व है। संस्कृति की लय अंवेरता। मां से पूछता हूं, अभी भी बीकानेर में गवर पूजते लड़कियां 15 दिन सुबह उठकर वैसे ही सामुहिक गीत गाती है? मां का जवाब हां भी होता है और ना भी। भाव यह है कि गणगौर पर्व पखवाड़ा होता तो अभी भी है परन्तु उसमें वह उमंग, उत्साह और लड़कियों के गान के दिन अब नहीं रहे। 
बहरहाल, गणगौर में दो शब्द है। गण और गौर। ‘गण’ माने शिव और ‘गौर’ यानी पार्वती। कन्याएं शिव समान अच्छे वर के लिए गवर पूजती है। पर इस पूजन भाव में भक्ति वाला गांभीर्य नहीं है, यहां सखी-भाव प्रधान हैै और पूजने की बजाय ‘खेलने’ पर अधिक जोर है। मौहल्ले-गली की लड़कियांे एकत्र होकर सामुहिक रूप में गवर पूजने के बहाने जैसे आपस में घुल-मिल खेलती है। याद पड़ता है, होली के बाद जब सोते तो आंख घर के पास से आते सामुहिक गीतों के मधुर स्वरों से ही खुलती थी। पता चल जाता, बहन पहले ही उठ गणगौर पूजने चली गई है। पूरे पखवाड़े तक सुबह गवर गीतों से ही सुहानी होती। सामुहिक सोल्लास भोर भर ही नहीं बल्कि पूरे 15 दिन तक अनुभूत होता। महिलाएं-कन्याएं गीत गाती हुई दूब लाने जाती और गणगौर का श्रृंगार करती। होली की राख के पींडे बनाए जाते और उन्हें पूजन के बहाने सजाय संवारा जाता। लड़कियां गीत गाती जाती और गान के साथ-साथ ही गुलाल के विभिन्न रंगों के मांडणे धरा पर मांडती। 
बीकानेर पाटों का शहर है सो गली-मौहल्ले में पाटों पर ‘ईसर-गणगौर’ की लकड़ी की गहनों, कपड़ों से सजी सुन्दर प्रतिमाएं सजती। रंग-बिरंगे वस्त्र, गहने, साज-श्रृंगार से सजी एक से बढकर एक सुन्दर गवरें। पूरे 15 दिन बहने गवर पूजती और उनके साथ हम भी जैसे उनके उमंग और उत्साह के साथी होते। कहें तब मन में अवर्णनीय उत्साह, उमंग गवर को लेकर रहता और गणगौर मेले में यह उत्साह चरम पर पहुंच जाता परन्तु यह गवर विदा का समय होता। अलसुबह ही कुआंरी कन्याएं, महिलाएं, बूढी दादियां एकत्र हो जाती। मिट्टी के पालसिए में उगाए ज्वारे और गुलाल लिए गवर का विसर्जन करने पास के कुओं, तालाबों में मेला सा भरता।
डेली न्यूज़, 14 मार्च, 2014 
मुझे लगता है, गणगौर समुह भावना को जीवंत करता पर्व है। एक दिन नहीं पूरे 15 दिन तक के लिए। इसमें संगीत है, नृत्य है और है लोकानुरंजन। और हां, जीवन से जुड़ा अनुराग भी। जयपुर में आए एक दशक से अधिक का समय हो गया है। मित्र कहते हैं, अब तो मूल निवास प्रमाण पत्र भी चाहो तो यहां का बन सकता है। पर कोई बताये, महानगर होते जयपुर में परम्परा की वह सोंधी महक कहाँ से मिले!  सोचता हूँ, अब जबकि होली नजदीक है, गणगौर गान के सामंुहिक स्वरों से जुड़ी उन यादों का क्या करूं। कोई बताए कहां से पाऊ माधुर्य का वह राग और उससे जुड़ा अनुराग! आप ही बताईए, भौतिकता की अंधी दौड़ में क्या हम अपने से ही लगातार ऐसे ही दूर नहीं हुए जा रहे हैं! 

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