Friday, March 21, 2014

रंगों की भाषा में उत्सवधर्मिता गान

वैश्वीकरण से कलाओं में आदान-प्रदान की सूझ तो बढ़ी है, पर वैविध्यता का लोप भी हुआ है। चित्रकला को ही लें। निरंतर एक जैसे ही विषय, रूपाकारों में रंगाच्छादन देखते बहुतेरी बार ऊब सी होती है। ऐसे में युवा कलाकार सुरेन्द्र सिंह के कैनवस पर बरते रंग, रेखाओं का उजास और बिम्बों में बसी स्मृतियां मन में औचक ही घर करती है। इसलिए कि एकरसता से परे भिन्न छटाओं में प्रकृति से जुड़े अनुभवों की अनथक यात्रा सरीखे हैं, उसके चित्र। कुछ दिन पहले सद्य बनाए उसके चित्रों और छाया-छवियों का आस्वाद करते यह भी लगा कि आंतरिक सौन्दर्यानुभति में वह स्मृतियों को कैनवस पर जीवंत करता है। लोक राग घोलते। इसलिए भी कि वहां मौलिक दृष्य प्रभाव भी है और रूप तत्वों का सांगीतिक आस्वाद भी।
बहरहाल, सुरेन्द्र के सद्य बनाए चित्रों की कला प्रदर्शनी ‘बियोन्ड टेक्सचर’ कलानेरी कलादीर्घा में प्रारंभ हुई है। कला पेटे इधर कैनवस पर जो कुछ सिरजा जा रहा है, उसमें सुरेन्द्र सिंह के चित्र अपनी मौलिक दीठ से भविष्य की उम्मीद जगाते हैं। हो सकता है, कोई इन्हें एब्सट्रेक्ट कहेे पर वहां रूप का सौन्दर्य है। यथार्थ के गहरे सौन्दर्य संकेत जो वहां है! वास्तविक रूप भले न हो पर चित्रित क्षेत्र के आकार व रंग में जीवन से जुड़े अनवरत संदर्भों की कहानियां दृष्य कहन सरीखी ही हैं। चित्रों में उभरे रंगालेपों में कहीं मंदिर में हो रही प्रार्थना की ध्वनियां हैं, मांडणा सज्जित घर और उससे जुड़ी यादों के संदर्भ हैं तो ठौड़-ठौड़ अंवेरा रेत का हेत भी है। कैनवस पर समतल पर विभाजित रंग आकारों और उनके आभास में आधुनिकता की लय के बावजूद सुरेन्द्र के चित्रों में पारम्परिक भारतीय चित्र शैलियों की दीठ है। और हां, लोक कलाओं के जो अलंकरण वहां है, उनमें मिट्टी की सौंधी महक भी है। कुछेक चित्रों में फूल और पंखुडि़यों के साथ लहराती पत्तियों में प्रकृति के अपनापे को जैसे बुना गया है तो कुछेक में लहरों की वक्रता के साथ गतित्व की सुनहरी आभा मन को सुकून देती है। पर कुछेक चित्रों में आकृतियों  के साथ उभरे आधुनिक जीवन बिम्ब अखरते भी हैं। सहज सौन्दर्य की लय तोड़ते।
बहरहाल, इधर बनाए सुरेन्द्र के चित्रों की बड़ी विशेषता  यह तो है ही कि उनमें किसी शैली विशेष या कलाकार का कहीं कोई अनुकरण नहीं है। अंतर की प्रेरणा में भारतीय जीवन दर्शन के साथ वह लोक कला की सहजता में अपने तई बढ़त करता है। चित्र देखते वान गो के चित्रों की भी याद हो आती है।...शायद इसलिए कि रंगों का वहां प्रतिकात्मक महत्व है। माने बचपन की यादों के साथ वर्तमान जीवन से जुड़ी आपा-धापी भी रंगों से ध्वनित होती है। तमाम उसके चित्र रंग भाषा में स्मृतियों और अनुभूतियों की एक तरह से व्यंजना है। सोचता हूं, वान गो ने ही तो कभी चित्रकला में रंगों की भाषा समझाई थी। इस दीठ से सुरेन्द्र के चित्र अंतर्मन संवेदनाओं की अनुकूल रंग संगति तो है ही, हमारी सांस्कृतिक कला विरासत में स्मृतियों के जीवंत दस्तावेज सरीखे भी हैं।सेजान की मानींद सुरेन्द्र के चित्रों में प्रचलित का अध्ययन तो है पर रूप परिवर्तन की मौलिक दीठ भी है। माने जो कुछ कला में दिख रहा है, उसकी एकरसता तोड़ते वह बाह्य प्रभावों से परे कैनवस पर सौन्दर्य को एक तरह से सिरजता हैं। 
‘बियोन्ड टेक्सचर’ श्रृंखला के सुरेन्द्र सिंह के चित्र लोक राग लिए प्रकृति घुले रंगों से अपनापा कराते हैं। इसीलिए मन को मोहते हैं।  कैनवस पर सधे-संयोजित रंग देख मन में काव्य की पंक्तियां हिलोरे ले रही है। स्मृतियों और अनुभूतियों के दृष्यालेखों में ऐसे ही होता होगा-उत्सवधर्मिता का गान। 

1 comment:

SURENDER SINGH said...

THANK YOU SO MUCH TO GIVING WORDS TO MY COLOURS.