Friday, August 22, 2014

प्रकृति के सौन्दर्य चितराम


कलाकृति : अन्नपूर्णा शुक्ला 

पेड़, पहाड़, पक्षी, नदी और घाटियों  से ही तो है प्रकृति का सुरम्य रूप।  कहें, यह जीवन का वह सुमधुर राग है जिसे देखा, सुना और छुआ भी जा सकता है।
सोचिए!  पक्षी चहचहाते हैं, पेड़ लहलहाते हैं,  उमड़-घुमड़ बादल बरसते हैं तभी ना ओढ़ती है-धरित्री हरियाली का आंचल।  प्रकृति के इन भांत-भांत के रंगों की पाण ही मन पाखी भरता है, सृजन की उड़ान। 
बहरहाल, आधुनिकता में गांव जब तेजी से शहर बन रहे हों। हवा-पानी में प्रदूषण का जहर घुल रहा हो, प्रकृति के सौन्दर्य को अनुभूत करने की संवेदना भी जैसे कहीं गुम हुई जा रही है। पर पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में अन्नपूर्णा शुक्ला सृजित प्रकृति दृश्यावलियों से साक्षात् होते लगा, जीवन के सुमधुर राग को कला ही सांगोपांग ढंग से जीवन्त करती है। उनका कैनवस रंग-रेखाओं की लूंठी लय अंवेरता प्रकृति दृश्यावलियों का न भूलने वाला पाठ जैसे हमें बंचाता है।  हरी घास, काले-भूरे बादल, नीला आकाश, धूप में नहाते पेड़, चांद और उसकी चांदनी के साथ हवा-पानी तक को अन्नपूर्णा ने सौन्दर्य की अर्थ अभिव्यंजना में गुनते गहरे से कैनवस पर बुना है। एक चित्र में पहाड़ों के बीच बहती नदी का सौन्दर्य चितराम है। नदी केन्द्र में है पर पहाड़, पेड़, झााडि़यां और तमाम परिवेश की सूक्ष्म व्यंजना में भावों की अनूठी ओप वहां है। ऐसे ही एक में बादलों के उमड़ने-घुमड़ने को जिया गया है तो एक में पक्षी के कीट भक्षण की गूढ़ व्यंजना है। चित्र और भी है। जिनमें ठौड़-ठौड़ प्रकृति से जुड़ी समय संवेदनाओं को उकेरा गया है। पहाड़, पेड़ और नदी से जुड़े छाया-प्रकाश संबंधों की गतिशील लय वहां है। मुझे लगता है, अन्नपूर्णा रंग-रेखाओं में प्रकृति से जुड़ी सौन्दर्य संवेदना के गूढ संकेत रचती है। उनके चित्र उस रहस्यमय फंतासीलोक की सैर कराते हैं जहां प्रकृति के असीम छोर को पकड़ने का जतन है। इसीलिए कि पेड़ है तो उसका सौन्दर्य से जुड़ा कोई संदर्भ वहां है, चिडि़या है तो उसके गान में गुंजरित भाव है, नदी है तो उसके बहाव का मर्म है, पहाड़ है तो उस पर छाए कोहरे और धूप को भी गुना-बुना गया है और फूल-पत्तियां, घास, वनस्पति भी यदि है तो उनमें निहित लय की सौन्दर्य संवेदना वहां ध्वनित होती है।   
कलाकृति : अन्नपूर्णा शुक्ला 
अन्नपूर्णा शुक्ला के प्रकृति चित्रों का आस्वाद करते औचक सुमित्रानंदन पंत की बांसो के झुरमुट पर लिखी पंक्तियां जेहन में कौंधने लगी है,  ‘बांसो का झरुमुट संध्या का झुटपुट है चहक रही चिडि़या टी-वी-टी-टूट्-टूट्।’ बांस, संध्या, झरुमुट और चिडि़या के चहचहाने की इस व्यंजना में दृश्य का सघन संप्रेषण ही तो है। अन्नपूर्ण शुक्ला के चित्र यही करते हैं। मन करता है, पेड़, पहाड़, नदी और उससे जुड़े संवेदना में रमें। उनमें बसें। प्रकृति की उकेरी दृश्य गंध को अनुभूत करें। आखिर, अन्नपूर्णा शुक्ला के चित्र हमें प्रकृति के रहस्यमयी फंतासी लोक में ही तो ले जाते हैं। अनुभूति के खरेपन में सौन्दर्य संदर्भों की सर्जना कोई कलाकार आखिर ऐसे ही तो करता है!

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