Friday, August 8, 2014

कार्टून कला के प्राण का जाना


गागर में सागर भरती हास्य-व्यंग्य में सराबोर कोई कला है, तो वह-कार्टून कला है। संस्कृति, साहित्य और तमाम दूसरी कलाओं का स्थान भले समाचार पत्रों में निरंतर कम होता चला गया है परन्तु आज भी मुखपृष्ठ को समृद्ध करती कोई कला नजर आती है तो वह भी कार्टून कला ही है। कहें, इस समय कला ही नहीं पत्रकारिता की भी यह वह विधा हैं जिसमें रेखाएं किसी स्तर पर संपादित  नहीं होती।
बहरहाल, आर.के.लक्ष्मण के कार्टून ‘आम आदमी’ ने देश में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। चेक वाला बंद गले का कोट, सिर पर सफेद बालों का एक-आध गुच्छा बचाए और नाक के ऊपर भारी सा चश्मा पहनता हैरान-परेशान ‘आम आदमी’ जीवन में कुछ इस कदर घुला-मिला नजर आता है कि चाहकर भी हम उसे बिसरा नहीं सकते।
ठीक वैसे ही जैसे प्राण कुमार शर्मा सिरजे पगड़ी पहने चाचा चैधरी को हम शायद ही कभी भुला पाएं। भारतीय काॅमिक जगत के उस पुरोधा का काल कवलित होना, जैसे एक युग की विदाई है। प्राण ने उस समय में अपने उस बेहद चतुर कार्टून चरित्र को गढ़ा था जब कम्प्यूटर का बोलबाला नहीं था।



पर यह चरित्र जब चुटकियों में समस्या का हल करता तो, काॅमिक में लिखा आता, ‘चाचा चैधरी का दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चलता है।’ काॅमिक का यह कहन भारतीय जीवन में मुहावरे की मानिंद रच-बस गया। और यही क्यों, उनके कार्टून चरित्र ‘चन्नी चाची’, ‘बिल्लू’, ‘पिंकी’, ‘रमन‘, ‘साबू’, ‘राका’, ‘गोबर सिंह’ भी जैसे हममें घुल मिल गए हैं। 

याद पड़ता है, स्कूल के दिनों में छुपाकर प्राण रचित चाचा चैधरी श्रृंखला की काॅमिक्स ले जाते। कक्षा मंे अध्यापक पढ़ा रहे होते और मुंह नीचे किए एक दिन में दस-दस काॅमिक्स पढ़ डालते। मन तब भी भरता कहां था! सोचता हूं कार्टून चरित्रों से लगाव तभी हुआ जो अभी तक बरकरार है।
बहरहाल, कार्टून कला भर ही नहीं है, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों की जिम्मेदार समीक्षक भी हैं। कभी पंडित नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर ने एक कार्टून बनाया था। नेहरूजी माईक पर जनता को संबोधित कर रहे हैं, ‘हमें आगे बढ़ना है।’ लोग इधर-उधर तेजी से भाग रहे हैं। नीचे छोटा सा वाक्य है, ‘व्हेअर?’ कार्टून कला परिवेश के सच को ऐसे ही उघाड़ती है। कभी अबू अब्राहम का कार्टून संकलन ‘द बुक रिव्यू’ खरीदकर लाया था। मुखपृष्ठ ही संकलन के अंदर के पन्नों को जैसे बंया कर देता है। कुछ नहीं, अबू का चिर-परिचित चतुर कौआ वहां है। चश्मे से झांकती पैनी नजर, सभ्रांत कौआ। कार्टूनिस्ट के लिए शब्द जरूरी कहां है! उसकी रेखाएं ही इस कदर बोलती है कि दृश्य जेहन में हमेशा के लिए जैसे बस जाता है।
प्राण की सधी कार्टून रेखाएं ऐसी ही हैं। वह नहीं रहे! इस एक समाचार ने अंदर से हम जैसे बहुतों को शायद हिला दिया है। बंद आंखों में भी जैसे बहुत कुछ दिखने लगा है। चाचा चैधरी, साबू और चन्नी चाची ही नहीं विलेन चरित्र गोबर सिंह और राका भी जार जार रो रहे हैं। आखिर उन्हें जन्म देने वाला वह शख्स जो चला गया है! प्राण जा नहीं सकते। वह हममें विलीन हैं।


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