Sunday, August 3, 2014

शास्त्रीय रागों का दृश्य कहन

रामकुमार के रेखांकनों की एक महत्ती कला प्रदर्शनी को कोलकता में आकृति आर्ट गैलेरी के लिए प्रयाग शुक्ल क्यूरेट कर रहे हैं। निमंत्रण का उनका मेल आया तो रामकुमार की कलाओं में ही मन जैसे रम गया।...
रामकुमार शब्द कहन में ही नहीं, अपने चित्रों से भी स्मृतियों और अनुभूतियों का आकाश रचते हैं। कैनवस पर दृश्य के वह मोहक पर विरल पाठ जैसे बंचाते हैं। ऐसे दौर में जब यह तय कर पाना मुश्किल है कि कौनसी कलाकृति किस कलाकार ने सिरजी है, यह सुखद है कि रामकुमार के चित्र अभी भी अपनी शैली, रंग-रेखाओं की विशिष्ट व्यंजना में अलग से पहचान में आते हैं। कोई सालेक पहले केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के निमंत्रण पर अगरतला जाना हुआ था। राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में आई प्रविष्टियों का आस्वाद करते एक जगह रामकुमार जी की कलाकृति देख ठिठक गया। यह यहां कैसे?’ पता चला किसी ने रामकुमार जी के कार्य की काॅपी भेज दी, और मजे की बात यह कि उसे राष्ट्रीय प्रविष्टि में चयनकर्ताओं ने शुमार भी कर लिया था। मन खट्टा हो गया। रामकुमार की कलाकृतियां को कोई जूरी सदस्य कैसे भूल किसी और की मान सकता है! 

बहरहाल,  रामकुमार के रेखांकनों की एक महत्ती कला प्रदर्शनी को कोलकता में प्रयाग शुक्ल क्यूरेट कर रहे हैं। निमंत्रण का उनका मेल आया तो रामकुमार की कलाओं में ही मन जैसे रम गया। लगा, दृश्य संवेदना या फिर अंतर्मन अनुभूतियों को रंग-रेखाओं में वह इस सुघड़ता से बरतते हैं कि औचक ही किसी कहानी, घटना या फिर स्थान विशेष से जुड़ी स्मृति का कोई छोर वहां खुलता नजर आने लगता है। उनकी कलाकृतियां दृश्यालेख सरीखी ही हैं। जमीं के किसी टूकड़े में समाया किसी स्थान की विशेषता को रेखांकित करता कोई प्रतीक वहां है तो कहीं रंगो से मन में औचक किसी संवेदना का गान वहां है। चिंतन के आलोक में मन मथती कहन का विरल छन्द लिए ही तो है उनकी कलाकृतिया।

 उनके चित्रों में रंगो की उर्वर भूमि परिवेश के अनगिनत सच बंया करती है। मन करेगा, चित्र देखें और ठहर-ठहर फिर से वहां जाएं। उनके कैनवस में स्थानों की बहुलता पर भी बहुत कुछ कहा गया है पर मुझे लगता है, प्रकृति से जुड़ी संवेदना और रंगो को ही उन्होंने अपने कैनवस पर गहरे से जिया है। प्रकृति के नित नए बदलते रूपों की मानिंद रंग वहां है। कहीं कोई ठहराव नहीं। रंग-रेखाओं में मौन की भी शास्त्रीय राग सरीखी व्यंजना। कुछ दिन पहले ही मुकुन्द लाठ जी ने अपनी सद्य प्रकाशित कृति ‘संगीत और संस्कृति’ भेंट की थी। पुस्तक का आवरण रामकुमार का है। इसे देखते मन में खयाल आ रहे हैं, रेखाओं सिरजी अनुभूतियों में वह रंगो को घोलते दृश्य की अद्भूत निर्मिती ही तो करते हैं! भले उनकी कलाकृतियों में, रेखाकंनो में स्पष्ट रूप नहीं है परन्तु दृश्यों का अपनापा है। कलाकृति देखते औचक मन करेगा, कैनवस में रमें। उसमें बसे। कला का असल सच यही तो है!


No comments: