Friday, October 10, 2014

स्वरों का सौन्दर्य प्रवाह


संगीत माने स्वर-पद और ताल का समवाय। स्वरों का सौन्दर्य प्रवाह। ध्रुवपद  तो नाद ब्रह्म है। भारतीय संगीत का मूलाधार। संगीत की तमाम शैलियां इसी से तो उपजी है। 

रवीन्द्र मंच पर पिछले दिनों एक सांझ डागर घराने के उस्ताद वसिफुद्दीन डागर को सुनते लगा वह इस समय के बिरले  ध्रुवपदीये  हैं। मुझे लगा, रागों को वह कंठ से गाते नहीं बजाते हैं। शब्द की अर्थव्याप्ति में वह संगीत का अद्भुत, अपूर्व महल ही जैसे खड़ा करते हैं। आलाप, स्थायी और अंतरा में उनका गान सुरों की नहीं स्वरों की यात्रा कराता है। सुर और स्वर का भेद या कहें मर्म कहीं है तो वह उनके गान में है। ...और गमक के तो कहने ही क्या! एक स्वर पर ठीक उसके बाद दूसरा, तीसरा और चैथा।...स्वर दर स्वर। नाद ब्रह्म से साक्षात्। नाभी से उठता नाद! अंतरालों का भावपूर्ण विन्यास और होले-होले आलाप की उनकी साधना मन को गहरे से मथती है। पूरिया राग औरशिव-पार्वती के बोलों का उनका निभाव मन में अभी भी गहरे से बसा है। और हां, स्वरों की जादूगरी में दुर्गा की उनकी रचना भी तो कहां कोई भूला सकता है! मां भवानी, दुर्गा को वह जब गा रहे थे तो महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की कथा आंखो के समक्ष जैसे जीवंत हो रही थी। बाद में ‘निजामुद्दीन औलिया, मदीने बलिहारी...’ के गान का उनका निभाव भी निराला था। वह शायद राग सोनी था। स्वरों की निरंतरता, उतार-चढाव की उनकी यात्रा में ही तो बसा है अभी भी यह मन।

बहरहाल, संगीत की उस  ध्रुवपद  सांझ का दूसरा पड़ाव फतेह अली खां का शहनाई वादन था। शहनाई के लगाए उनके सुरों से औचक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की याद ताजा हो उठी। फतेह अली खां उनके पोते हैं। मींड, गमक, लयकारी, तान, पलटा और मूर्की में शहनाई की उनकी फूंक माषाअल्लाह! किसी एक राग के बाद दूसरी का उसमें घोल मिलाते सुरों पर उनका नियंत्रण भी गजब का है। पक्के सुर! राग का सुनहरा घेरा। लंबी तान और फिर सुरों की छोटी-छोटी फूंक! मींड लेते वह सुरों का मोड़ और घुमाव करते अपूर्व की अनुभूति कराते हैं। 

कजरी, ठुमरी, चैती के शहनाई बोलों में रागों में वह बसते हैं और फिर जब सुर चरम पर पहुंचता तो फिर से उसे सम पर ले आते। शहनाई का यही तो है मंगल गान! जीवन की धूप-छांव के साथ उसके उजास की लौकिकता जो वहां है।

बहरहाल, मन आर्ट कंजर्वेशन  एंड रीस्टोरेस्टेशन  संस्थान की मईमुना नर्गीस की दाद दे रहा है। संगीत की दूर होती जा रही हमारी परम्पराओं के यूं वह पास जो ले जा रही है! उस अपूर्व संगीत सांझ से पहले उस्ताद वसिफुद्दीन डागर और फतेहअली खां से  ध्रुवपद की परम्परा और समकालीनता के साथ शहनाई के सौन्दर्य पर संवाद में भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण मिला था। सच! यह संगीत ही तो है जिसमें आनन्दानुभूति की सौन्दर्य चेतना को यूं अनूभूत किया जा सकता है।


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