Friday, October 17, 2014

राग का कला अनुराग

कलाकार खेतांची की बारहमासा श्रृखंला की कलाकृति 
हमारे यहां काल के गाल पर लिखे गए हैं, ऋतुओं के गीत। खंड-खंड अखंड! हिन्दू महिनों पर जाएंगे तो पाएंगे उदय और उत्कर्ष की गहरी सोच वहां है। वहां है, जीवन की लय, अंवेरती दीठ! तमाम हमारे संगीत, नृत्य और चित्रकला में यही तो व्यंजित है। 
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र की सुकृति कला दीर्घा में कुछ दिन पहले कलाकार खेताणची की ‘बारहमासा’ चित्र प्रदर्शनी का आस्वाद करते यही सब सोच रहा था। लगा, चित्र नहीं, राग-रागिनी में झंकृत काल के प्रवाह को अनुभूत कर रहा हूं। सादृश्य में महिनों की रंगत! रंग और रेखाओं में मन में घट रहे भावों की व्यंजना। हमारे यहां राग उद्धत भाव माना गया है माने पुरूष, रागिनी सुकुमार भाव लिए है, यानी स्त्री। इस दीठ से खेताणची के चित्र राग-रागिनी में व्यंजित हिन्दू महिनों के वर्ष चक्र में गूंथा संगीत सरीखा है। रंग-रेखाओं की सांगीतिक तान में भाव-भंगिमाओं से जुड़ा परिवेश वहां है। ऋतुओं के असर से जुड़ी संवेदना भी वहां हैं। भले वह सीधी-सपाट आकृतियां ही रचते हैं परन्तु उनमें सांगीतिक लय है। इसीलिए भी कि प्रकृति को वहां मन से जोड़ा गया है। इसीलिए भी कि राग-रागिनी के साथ वहां धरित्रि का गान है। संस्कृति की हमारी सोच है। कला का हेतु यही तो है। रचें तो उसमें बसें भी। कला कहां मूर्त या अमूर्त होती है, वह तो बस कला ही होती है। 
बहरहाल, चित्रों का जब आस्वाद कर रहा था तो मन में जैसे कौंधा, हममें से बहुतों को हिन्दू महिनों के नाम शायद ही ठीक से पता हों। हां, अंग्रेजी महिनों के नाम छोटे बच्चे को भी कहेंगे तो त्वरित सुना देगा। यही इस समय की विडम्बना है। विश्वभर में बारह मास का एक वर्ष और सात दिवस का सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत् से ही शुरू हुआ। पूरा वर्ष चक्र हमारे यहां जीवन चक्र से अभिहित है। महिनों का हिसाब हमारे यहां सूर्य व चंद्र की गति से है। हर माह में चन्द्रमा की कला घटती और बढ़ती है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कला बढ़ती है, कृष्ण पक्ष में घटती है। संस्कृति का हमारा इतिहास इसी में गूंथा है। प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष। विचार के जरिए ही उसे जाना जो जा सकता है! इस दीठ से पाता हूं, खेताणची के चित्रों मे महिनों का वैज्ञानिक कला आधार है। मसलन कार्तिक माह के चित्र को ही लें। अमृत बरसाती चन्द्र किरणें और पूर्णिमा के चांद को निहारते नायक-नायिका की विरल व्यंजना वहां है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विनी, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन माह के चित्रों में भी ऋतुओं का धरित्रि क्रोड है।...और है मन में उमड़ने वाले भावों का संचार। सच! यह हिन्दू संस्कृति के महिने ही तो हैं जिनमें राग का इस तरह से अनुराग भाव हैं। कला की दीठ से है कहीं और ऐसा आकाश!


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