Monday, April 12, 2010

पर्व के बहाने प्रकृति से जुड़ाव

पर्व के बहाने प्रकृति से जुड़ना कोई हमारी भारतीय परम्परा से सीखे। घुमने की लालसा के लिए नहीं। पर्यटन की प्रवृति के कारण नहीं। मेले के उत्सव में भाग लेने के लिए नहीं बल्कि संस्कृति की परम्परा के पुण्य स्नान के लिए कुम्भ एकत्र करता है समुदाय को एक स्थान पर। कुम्भ पर नदी तट पर एकत्र हो सभी स्नान करते हैं। भगवे वस्त्र पहनें साधु, अमीर, गरीब, स्त्री-पुरूष सभीजन एक हो जाते हैं।

प्रकृति पल प्रतिपल अपना रंग बदलती है। या यूं कहूं कि अपना परिष्कार करती है। हमारी धर्म की परम्पराओं के मूल में भी प्रकृति का यही सूक्ष्म रूप छुपा हुआ है। प्रकृति के साथ व्यक्ति अपने आपको साधे। वह परम्पराओं को ढोए नहीं, उनसे अपने आपको जोड़ता हुआ निरतर अपना परिष्करण करे। कुंभ में स्नान का महात्म्य नदी में नहाना भर नहीं है। नदी के पानी से शरीर को स्वच्छ करना भर नहीं है। शारीरिक शुचिता के साथ मानसिक शुचिता को प्राप्त करना भी हैं। मन को उदार बनाते उसकी शुद्धि करना है। पाप धुलने का अभिप्राय है, आप धुलें।

स्नान करने पर पुण्य मिलता है। धर्म यही कहता है परन्तु उसका मर्म धरित्रि की प्रार्थना से जुड़ा है। प्रार्थना सिर्फ अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी। पुण्य को संजोना है, इस जन्म के लिए नहीं अगले जन्म के लिए भी। यानी अनवरत चलना है यह क्रम। जाने-अनजाने हम जो कुछ गलतियां करते हैं, जो कुछ अनर्थ करते हैं, जो कुछ नहीं करने वाला करते हैं, उनका प्रायष्चित कराता है नदी का स्नान। लोग भोर से पहले ही आकर गंगा और दूसरी नदियों के तट पर एकत्र होने लगते हैं।

कुम्भ में स्नान की मेरी अपनी यादें हैं। हरिद्वार में अलसूबह ही गंगा तट पर परिवारजन एकत्र हो गया। दादी ने सभी को जगाया। कुम्भ स्नान के लिए शायद रात भर वह सोई भी नहीं थी।...सभी को साथ ले नदी तट पर ले आयी थी। अर्सा पहले की बात है यह। मन में उसकी धूंधली याद भर है। भीड़ का रेला लगा था परन्तु फिर भी जैसे हर व्यक्ति अकेला था। इस अकेलेपन में भाव था, अपने आपको शुद्ध करने का। मनसा, वाचा और कर्मणा से। तभी पहली बार लगा था, समूह में उंच-नीच के भाव तिरोहित हो जाते हैं। पहली बार भीड़ में होते हुए भी भीड़ से अलग अकेलेपन का भाव भी तभी लगा था। नदी पर स्नान की परम्परा में सम्मिलित होने की उस याद में पित्तरों के साथ आने वाली पीढ़ी के कल्याण का हरजस भी दादी के मुंह से निकल रहा था। नदी तट पर कमर तक डूबे अभ्यर्थना में उठे हाथ हर ओर हर छोर।

कुम्भ में आपको भीतर और बाहर से शुद्ध करने की मंषा ही दूर दराज से लोगों को एक स्थान पर खींच ले आती है। सूर्य को अर्ध्य देते हाथ। डूबकी लगाकर अपने आपको शुद्ध करने के साथ भविष्य के सद्कर्मों के लिए अपने आपको संकल्पबद्ध करते जन। किसी भी धर्म का यही सबसे बड़ा मर्म है। हम अपने आपका मूल्यांकन करें। अपना आत्मविष्लेषण करें। कुंभ इसी का प्रतीक है।

एक ही घाट पर जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव से परे वहां हर व्यक्ति इंसान होता है। सबके लिए उसके भाव सम होते हैं। जाति का वहां कोई बंधन नहीं है। गरीब और अमीर की कोई खाई नहीं है। वय का कोई बंधन नहीं है। सभी एक डूबकी भर लगाने को आतुर। हैं। मन में उठने वाले ईर्ष्या, द्वेष के भाव नदी तट आ जैसे तिरोहित हो जाते हैं। मनुष्य केवल और केवल मनुष्य रह जाता है। स्नान से पहले ही धुलने लगता है मन का मेल। डूबकी लगी नहीं कि उदादत्ता के भाव अपने आप ही जगने लगते हैं।

मुझे लगता है, सांस्कृतिक अस्मिता की अर्थ बहुल ध्वनियां यदि सुननी हो तो एक बार कुम्भ पर्व पर जरूर सम्मिलित होना चाहिए। उत्सवधर्मिता के इस पर्व में मन में उमंग और उत्साह का नया प्रवाह होता है।

नदियों में स्नान की परम्परा शायद इसलिए है कि नदी के प्रवाह से हम सीख ले। कहते हैं जल यदि बहता नहीं है, एक ही जगह रूक जाता है तो संधाड़ं मारने लगता है। ऐतरेय ब्राह्मण का बहुश्रुत मंत्र भी तो यही है, ’चरेवैति, चरैवेति....’ अर्थात् चलते रहो। चलते रहो। नदी की तरह। नदियां का प्रवाह जीवन का पर्याय है। शून्य से आती अनंत में समाती नदी। वे बहती हैं तो अपने साथ बहुत कुछ बहा कर ले जाती है। धूल, कंकर, मिट्टी, बड़े पेड़ों के तने और तमाम गंदगी। मुझे लगता है पुण्य सरिताओं के प्रवाह को देखें नहीं उसे सुनें और फिर गुनें। प्रवाह में कितने वेग, संवेग झेलती है नदी। उतार-चढ़ाव में पत्थरों की बाधाओं को पार करती नदियां बहती है। न थकते। कभी मंद तो कभी तेज। नदी का प्रवाह गति में आगे बढ़ता रहता है। जीवन में भी तो यही है। जीवन प्रवाह क्या नदी के समान नहीं है? कितने उतार-चढ़ाव आते हैं। आषाएं-निराषाएं उत्पन्न होती रहती है। संकट आते हैं। दुःख से उत्पन्न होती है पीड़ परन्तु हम कईं बार अपने प्रवाह को रोक देते हैं। दुःखों से घबरा जाते हैं। नदी नहीं घबराती। उसका प्रवाह कम नहीं होता। नदी की शक्ति है उसकी गति। हम गति को कम कर देते हैं। गति को समाप्त कर देते हैं। सोचिए! यदि जीवन में गति ही नहीं रहे तो क्या सब कुछ थम नहीं जाएगा। गति जीवन की सहजता है। गति का अर्थ है चलते रहना। सांस भी तो चलती है। यदि उसका चलना रूक जाए तो!

...तो बहती नदी के प्रवाह को सुनें। उसमें भीगें। कुम्भ से बड़ा और बहाना इसका और हो भी क्या सकता है! कुम्भ स्नान कर जब लौटें तो अनुभूत करें, आप जो पहले थे, अब वह नहीं रहे। कवि घाघ कहता है,

‘क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति वदेव रूपं रमणीयाताः’

अर्थात् क्षण-क्षण में जो वस्तु को अपूर्व सुन्दरता अथवा नवीनता प्रापत होती है, वही रमणीयता का सच्चा स्वरूप है। इसीलिए हर पल, हर क्षण सुंदर है। उसे हाथ से न जान दें। कुम्भ में स्नान का हर क्षण, हर पल रमणीयता प्रदान करता है।

कुम्भ पर विचार करते ही रैदास का किस्सा स्मरण हो आया है, प्रयाग में कुम्भ का मेला भरा था। संत रैदास भी वहां पहुंचे। षिष्यों और उनके भक्तों ने उनका स्वागत किया, आदर-सत्कार किया। प्रयाग के पंडित चिढ़ गए। तय यह हुआ कि दोनों ओर के प्रतिनिधि हाथ में शालिग्राम लेकर गंगा में बहाएंगे। जो सच्चा होगा उसके शालिग्राम तैरते रहेंगे। रैदास की शालिग्राम मूर्ति तैरने लगी। रैदास ने तभी कहा था, ‘मूरती मांहि बसे परमेष्वर तो पानी मांहि तिरै रे।’

कुम्भ यानी घड़ा। जिसमें जल भरा जाता है। कुम्भ के बारे में विचारता हूं तो बहुत से बिम्ब मन में तैरने लगते हैं। एक कुम्भ वह जो अमृत से भरा है। क्षीरसागर के मंथन से निकला। वह जिन जिन स्थानों पर छलका और भूतल पर रखा गया और जिस जिस ग्रह के कालबिन्दु पर रखा गया, उन-उन स्थानों पर उस ग्रहयोग के कालबिन्दु पर प्रति बारह वर्ष के बाद कुम्भ पर्व मनाया जाता है। एक कुम्भ वह है जिस प्रक्रिया में सांस भरकर रोकी जाती है। यह शरीर भी तो कुम्भ ही है। कबीरदासजी तभी तो कहते हैं-

यह तन कच्चा कुभ है, लियां फिरै या साथि।

ढक्का लगा फुटि गया, कछु न आया हाथि।।

अर्थात् यह जो शरीर है वह कच्चा कुभ है, मिट्टी का बना जिसे लिये तूं यूं ही फिर रहा है। धक्का लगते ही यह फूट जाएगा फिर कुछ भी हाथ नहीं लगना है। भावार्थ यह कि भौतिक चीजें यहीं रह जानी है। मिट्टी का बना यह शरीर मिट्टी में ही मिल जाना है।

...तो कुम्भ जीवन चक्र का प्रतीक है। एक फेरे से मुक्ति के बाद दूसरा चक्र प्रारंभ हो जाता है। अमृत का अर्थ है न मरा होने का भाव। शरीर के मरने को एक स्नान के रूप में देखने का भाव। इसीलिए कुम्भ में स्नान किया जाता है। स्नान के बाद व्यक्ति वह नहीं रहता जो पहले था, वह नवीन हो जाता है। कुम्भ का स्नान तन और मन दोनों की ही शुद्धि का पर्व है। आस्तिक ही नहीं नास्तिक भी निस्पृह भाव से नदियों में स्नान करते हैं। स्नान करते अपने आपको नवीन करते हैं। पुराने भाव तिरोहित हो जाते हैं। नूतनता का संचार हो जाता है।

‘नवो नवो भवति जायमानः‘

लोक के अनहद नाद का यही मूल स्त्रोत है। नयेपन में ही तो व्यक्ति की असल यात्रा प्रारंभ होती है। भीतर की यात्रा। अकेलेपन की यात्रा। खुद को खोजने की यात्रा। कुंभ स्नान के बाद जब यह यात्रा करके व्यक्ति बाहर आता है तो वह पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाता है। पंडित विद्यानिवास मिश्र कहते हैं, ‘कुम्भ पर्व एक निमंत्रण है अपने गांव-घर, अपने जाति, कुल, अपने धन-वैभव को भूलकर एकदम अंकिचन बनकर जुड़ो, एक दूसरे से और जब जीवन की पवित्र धारा से रागी-वैरागी, सब एकत्र हों, काल के उस बिन्दु को पहचानो, देष की उस बिन्दु को पहचानो जहां अमृत का कुम्भ है। वह एक समय हरिद्वार में, दूसरे समय प्रयाग में है, तीसरे समय महाकाल की नगरी उज्जयिनी में है, चौथे समय गोदावरी के उद्गमस्थल नासिक में है। कोटी-कोटी आस्थाएं जुड़ती है जीवन के इस मूर्त्त प्रवाह से पत्थरो ंके हदृय से निकली हुई रसधार से कोटि-कोटि सांसे एक महाष्वास बनती हैं, सांसो का मेला होता है तब एक पर्व बनता है। पर्व का अर्थ है वह सन्धि जो भरे हुए रस की रक्षा करती है, गन्ने की दो पारों के बीच ही तो गन्ने की मिभस है। समष्टि जीवन का माधुर्य संचय ही पर्व है।’

कुम्भ का शास्त्रीय पक्ष ज्योतिष शास्त्र से जुड़ा है। कुंभ शब्द की व्युत्पत्ति है, कुं भूमिं, कु कुत्सितं उम्भति पूरयति इति कुम्भः। अर्थात् दिन का वह भाग जब क्षितिज पर राषि चक्र का उदय होता है। अलग-अलग स्थानों पर कुंभ का अलग अलग योग होता है।

पद्मिनी नायके मेषे कुम्भं राषिगतो गुरूः।

गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भ नाम ददोत्तमम्।।

सूर्य जब वृष राषि पर हों तथा वृहस्पति कुंभ राषि पर जाएं तब हरिद्वार में कुम्भ होता है और यह स्थिति बारह वर्षों में एक बार आती है।

कं जलं उम्भति पूरयति अवर्षणादि दुर्भिक्षेम्यो दूरयति इति कुम्भः।।

यानी बारह वर्षों में घटित वह ग्रह योग जो दुर्भिक्ष तथा अवर्षण को दूर करके सबको समृद्धि प्रदान करता है, वह कुम्भ है। इसीलिए हरिद्वार से ही कुम्भ की परम्परा की शुरूआत मानी गयी है। कुम्भ लोक पर्व है। प्रकृति से जुड़ने का पर्व। कुम्भ पर एकत्र जन समुदाय भीतर से खाली होता है। हरेक वहां मनुष्यता के भाव से ही खींचा चला आता है। कुम्भ महात्माओं के मिलन का पर्व है। बल्कि यूं कहें कि जब पृथ्वी पर लोकहित के लिए एक स्थान पर महात्मा एकत्र होते हैं तो वह कुम्भ योग होता है। कुम्भ स्नान के अंतर्गत एकत्र होने वाला जन समुदाय जो भाव लेकर वहां उपस्थित होता है, वह महात्मा का भाव ही तो होता है। इसीलिए शायद कहा गया है-

कुं पृथ्वीं उम्भतेऽनुगृह्यते उत्तमोत्तम महात्म संगमैः

तदीय हितोपदेषै यस्मिन् स कुम्भः।।

अर्थात् जब पृथ्वी पर अनेक महात्मा एकत्रित होकर लोकहितकारी उपदेषों का प्रवचन करें, वह कुम्भ योग है। लोक के बिना जीवन-सत्व का उद्घाटन कैसे हो! लोक में ही उत्सवधर्मिता और जीवन धर्म का उद्भव होता है। लोक तत्व का जब स्पन्दन होता है तो संस्कृति और दूसरी कलाएं मुखरित होते देखी जा सकती है। महाभारत के उद्योग पर्व में भी तो वेद व्यास कहते हैं

‘प्रत्यक्षदर्षी लोकानाम् सर्वदर्षी भवेष्वरः’

अर्थात् जो लोकदर्षन में शामिल होकर खुद उसे अपने अन्तरमन से देखता है, वही मनुष्य सच्चे रूप में लोक को समझ सकता है। भारतीय संस्कृति विष्ववरणीय इसीलिए है कि उसमें लोक जीवन का साधकीय रूप है। लोक उत्सवधर्मिता की अपनी परम्परा के अंतर्गत निरंतर अपने आपको साधता है। निरंतर साधने के लिए तन और मन दोनों की ही शुद्धि जरूरी है।

...और कुम्भ की पौराणिक कथाएं! सहज ही मन में कथाओं की गूंज होती है। सागर मंथन से निकले अमृत कुम्भ की कथा जेहन में सबसे पहले कौंधती है। अमृत की खोज में देवता और असुर दोनों ही साथ मिलकर जुट गए हैं। अमृत कलष जैसे ही हाथ में आया, दोनांे में ही उसे पाने का युद्ध छिड़ गया। लड़ाई चलती रही। चलती ही रही। कहते हैं, जिन स्थानों पर यह लड़ाई चली वहां कालान्तर में पर्व मनाया जाने लगा। इन स्थानों पर स्नान को मोक्षकारक माना जाने लगा।

एक और भी कथा है ‘मत्स्य पुराण’ की। अमृत कलष लेकर गरूण उड़ रहे हैं। उड़ान के दौरान अमृत कलष की बूंदे जहां जहां छलकी और जहां बूदें गिरीं, वहां कुम्भ पर्व विश्रुत हुआ।

आख्यान और भी है।...गरूण नागमाता कद्रू से अपनी माता को दासत्व से मुक्ति दिलाने के लिए ‘अमृत कलष’ हठात् छीनकर ले आए हैं। नागलोक में वासुति द्वारा रक्षित अमृत कलष के यूं गरूण के छीनकर ले जाने पर नागांे को बहुत क्रोध आता है। नाग उनका पीछा करता हैं। ‘अमृत कलष’ प्राप्ति के लिए नाग गरूण पर चार बार प्रहार करते हैं। चारों बार ‘अमृत कलष’ पृथ्वी पर रखकर गरूण को युद्ध करना पड़ा। कहते हैं, पृथ्वी पर जहा, जहां अमृत कलष रखा गया, वे ही स्थान ‘कुम्भ स्थली’ से जाने गए।

विष्णुद्वारे तीर्थराजेऽअवन्त्यां गोदावरी तटे।

सुधाविन्दु विनिक्षेपात् कुम्भ पर्वेति विश्रुतः।।

हरिद्वार का कुम्भ प्रथम कुम्भ है। प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में क्रमषः कुम्भ घटित होता है। कुम्भ अभावों को दूर करता है। जीवन में नवीनता का संचार करता है। यह जब घटित होता है तो मंगल होता है। पृथ्वी में समृद्धि व्याप्त होती है। हर ओर, हर छोर अनिष्टकारी प्रवृतियों का शमन होता है। मंगल कामनाओं के स्वर धरित्रि पर गूंज उठते हैं। अपने लिए नहीं बल्कि पूरे संसार के लिए मंगलकामना के स्वर-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कष्चित् दुःख भाग्भवेत्।।

1 comment:

कोसलेंद्रदास said...

Padhkar aanand aa gaya.
]Aap satat aise hi likhte rahe
Kosalendradas