Saturday, May 1, 2010

रंग संवेदना में उभरती अर्थ छवियां




कैनवस पर रंगों का जैसे मेला लगा हुआ है। हरा, नीला, लाल, काला, पीला और इन सबसे निकले दूसरे भी बहुतेरे रंग। उत्सवधर्मिता जताते। हर ओर, हर छोर। रंगों का सांगीतिक आस्वाद।... सब कुछ तरतीब से और थोड़ा साब बेतरतीब भी।... यह बेतरतीब क्यों? दीपक शिंदे कहते हैं, ‘यह कैनवस की सहजता है। आसमान में नजर दौड़ाएं, वहां भी कहीं कोई स्पेस अलग दिखायी देगा ही।...मेरे कैनवस का सच भी यही है। यह जो बेतरीब उभरा है, उसे चाहकर भी मैं तरतीब से नहीं कर सकता।...मुझे नहीं लगता यहां, ब्रश से कुछ किया जा सकता है।’

बहरहाल, समकालीन कला परिदृश्य में दीपक शिंदे ने इधर शेर, बंदर और दूसरे बहुतेरे पशु-पक्षियों की आकृतियों और उनके व्यवहारों को कैनवस पर सर्वथा अलग अंदाज में रूपायित किया है। उनके इधर बनाए काम को देखने व्योम आर्ट गैलरी में लगे अखिल भारतीय कला शिविर में पहंुचता हूं। वह कैनवस पर मनोयोग से लगे हुए हैं। कैनवस पर हरे, नीले, सफेद और काले रंगों के मेल से जो आकृति उभरी है, वह बाघ की है, इस आकृति के साथ ही उड़ती हुई एक चिड़िया भी अनायास ध्यान खींचती है। दृष्टियों की बहुलता में पृष्ठभूमि में बिखरे रंग भी जैसे बहुत कुछ कह रहे हैं। पेड़-पौधे, जंगल की नीरवता, वहां का एकांत और प्रकृति की सुरम्यता-अमूर्तन में यहा बहुत कुछ है। उनके अमूर्तन मंे विशिष्ट अर्थ छवियां हैं। ये ऐसी हैं जिनमंे रंग अपने होने को सार्थक करते जैसे देखने वाले से संवाद करते हैं। मुझे लगता है, अन्तर्मन अनुभूतियों को वे रंगों से जताते खुद भी उनमंे खो से जाते हैं। चटख होने के बावजूद उनके बरते रंगों में गजब का संतुलन है। लगता है, रंगों के साथ उभरती पशु-पक्षी आकृतियों मंे आकारों के तुमुल के बाद वह उनकी सादगी पर गए हैं।

शिंदे पहले से यह तय नहीं करते कि कैनवस पर क्या कुछ बनाया जाना है। जो कुछ घटित होता है वह कैनवस पर ही होता है। ऐसे मे ऐन्द्रिकता को रूपायित करते शिंदे उस अव्याख्यायित सौन्दर्य का भी सर्जन करते हैं जिसमें माध्यम से अधिक आशय की अर्थवत्ता होती है। गहन आशयों से उत्प्रेरित रंग मूर्त और अमूर्तन में जैसे यहां जीवन को नया अर्थ देते हैं। बौद्धिक रचनात्मकता में दीपक कैनवस पर नये नये रंग प्रभावों को आजमाते हैं, उनकी प्रभावशीलता में जाते हैं। ऐसा जब वह करते हैं तो रंग उत्सवधर्मिता के संवाहक बनते देखने वालों को सुकून प्रदान करने लगते हैं। और सबसे बड़ी बात यह भी है कि अमूर्तन में रंग संवेदना का सर्वथा नया मुहावरा गढ़ती उनकी कला में आधुनिकता है परन्तु उससे पैदा विभम्र नहीं है। मुझे लगता है, यही उनके चित्रों की वह विशेषता है जो उन्हे ओरों से जुदा करती है।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 30 अप्रैल 2010

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