Friday, May 7, 2010

तपःपूत जीवन का सांगीतिक आस्वाद

संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्र आदि समस्त कलाओं के बारे में जब भी मन में विचार आता है, मुझे लगता है सभी एक दूसरे मिली हुई है। एक दूसरे के बिना उनका काम नहीं चल सकता। कलाओं के आपसी रिश्तों को निश्चित किसी प्रकार की व्याख्या भले ही नहीं दी जा सकती हो परन्तु संगीत, नृत्य, अभिनय और चित्रों में परस्पर अनूठा सहकार होता है। कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों पर इस प्रकार से जब भी विचार होता है, रवीन्द्रनाथ टैगोर का व्यक्तित्व जेहन में कौंधने लगता है। मुझे लगता है, कला और संगीत के क्षेत्र में क्रांति का सूत्रपात करते रवीन्द्रनाथ ने जो किया वह कोई और नहीं कर सकता।

बहरहाल, रवीन्द्र ने कविताएं लिखी, नाटक और उपन्यास लिखे, हजारों हजार गानों की रचना की, चित्र बनाए और अपने तपःपूत जीवन के अनुभवों को निरंतर सांगीतिक आस्वाद दिया। किशोरी चटर्जी से सीखे गीतों को उन्होंने अपने मधुर कंठ से साधा और सबसे बड़ी बात यह कि कीर्तन, सारिगान, बाउल में तो उन्होंने जो किया, वह कला जगत कभी भुला नहीं पाएगा।

रवीन्द्र कहते थे, ‘मैं गान के सब्दों को सुर पर प्रतिष्ठित करना चाहता हूं।...मैं शब्द की अभिव्यंजना के लिए सुर संयोजित करना चाहता हूं।...संगीतवेत्ताओं से मेरा निवेदन है कि किस-किस सुर के किस प्रकार विन्यास से कौन-कौन से भाव प्रकट होते हैं और उनकी अभिव्यक्ति क्यों होती है-उसके विज्ञान का अनुसंधान करे।’ रवीन्द्र जब यह कहते हैं तो अनायास ही ध्यान उनके बनाए गीतों और उन चित्रों पर जाता है जिनमें सहज सांगीतिक आस्वाद है। बहुत बाद में उन्हांेने चित्र बनाने प्रारंभ किए थे परन्तु उन्होंने चित्रों की अपनी संवेदना में जीवन और प्रकृति के जो रूपाकार बनाए वे मन को उल्लसित करते प्रकृति और जीवन के रिष्तों को ही जैसें बंया करते हैं। उनके चित्रों की नारी आकृतियों में प्रकृति का अनूठा लोक है। रंगों का उत्सव है। कोमल रेखाएं और उनका गतिषील प्रवाह उनके चित्रों की बड़ी विषेषता है। मन के भीतर की उमंग, उल्लास और उमंग को प्रकृति से जोड़ते उन्होंने जो नारी आकृतिया बनायी वे देखने वाले से जैसे संवाद करती है।

अपने चित्रों के बारे में वे कहते भी थे, ‘मैं अपनी धुन के अनुसार ही चित्र बनाता हूं। बस हाथ में रंग या कागज हो और मन में उमंग, फिर क्या कहने हैं। मन तूलिका और रंगो से खेलने लगता है और इसी तरह मेरे चित्र बनते हैं।’ सच ही तो कहते हैं रवीन्द्र। पूर्व निश्चित कुछ सोच कर उन्होंने कभी चित्रों का निर्माण नहीं किया। अक्सर लकीरें गोदते हुए ही वे बहुत कुछ महत्वपूर्ण बना देते। ऐसा ही उनके संगीत के साथ था। वे संगीत सुनते, उसे गुनते और ऐसे ही बहुत सी संगीत रचनाओं का उनसे अनायास ही जन्म हो गया।...और यह भी क्या महत्वपूर्ण नहीं है कि किसी संगीतकार के नाम पर कहीं पर भी संगीत नहीे मिलता जबकि रवीन्द्र ऐसे हैं जिनके नाम पर रवीन्द्र संगीत का गान होता है। उनके भीतर के कलाकार का इससे बड़ा परिचय और क्या हो सकता है!

‘डेली न्यूज में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश  कुमार व्यास का कॉलम ‘कला तट’ दिनांक 7.5.2010

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