Friday, June 18, 2010

कला चिन्तन की समृद्ध परम्परा का आलोक

 हमारे यहां ललितकलाओं, उनकी परम्परा और पद्धतियों पर प्रेमचन्द, जयशंकरप्रसाद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, विद्यानिवास मिश्र, गुलेरी, भदन्तआनंद कौसल्यायन, दिनकर, राय कृष्णदास, गुलाम मोहम्मद शेख, वासुदेवशरण अग्रवाल, अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल आदि ने निरंतर लिखा है। कला के प्रतिमानों, उसके मूल्यों, उपयोगिता और कला पद्धतियों के विश्लेषण की दीठ से यह लिखा बेहद महत्वपूर्ण है परन्तु विडम्बना यह भी रही है कि अंग्रेजी और अंग्रेजीदां लोगों द्वारा निरंतर हिन्दी कला आलोचना की भाषा को दरिद्र और व्यवस्थित नहीं कहकर एक साजिश के तहत उसे हासिये पर रखा जाता रहा है। इसका बड़ा कारण शायद यह भी है कि हिन्दी में कला आलोचना कर्म का व्यवस्थित संग्रहण नहीं हुआ है।

‘समकालीन कला’ के संपादक और आलोचक ज्योतिश जोशी कहते हैं, ‘...हिन्दी और दूसरी भाषाओं में लिखने वालों ने पूरे मनोयोग से कला समीक्षा की भाषा स्थिर की, उसके मूल्यांकन के नए प्रतिमान बनाए और पर्याप्त ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कला समीक्षा को विकसित करने की चेष्टा की। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हिन्दी की अपनी सहज शैली में विवरण, विश्लेषण, संवाद और अध्ययन की तार्किकता के साथ ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सामाने लाकर वर्तमान संदर्भ में कला परम्पराओं, पद्धतियों और उसका समेकित आशय करने वाली यह परम्परा हाशिए पर चली गई।’

जोशी ने इधर इस दृष्टि से बेहद महत्वूर्ण कार्य किया है। भारतीय कला चिन्तन के अंतर्गत हिन्दी मंे गत सौ वर्षों में लगभग पांच सौ निबंधों के पांच हजार पृष्टों में से कोई बारह सौ पृष्ठों का ‘कला विचार’, ‘कला परम्परा’ और ‘कला पद्धति’ शीर्षक से तीन खंडों में जोशी ने जो संपादन कार्य किया है, वह सर्वथा अनूठा है। इस दृष्टि से भी कि इसमें उन्होंने देशभर की साहित्य, संस्कृति अकादमियों, संस्थानों के साथ ही साथ विभिन्न नगरों मे रह रहे कलाविदों और कलाप्रेेमियों के निजी संग्रहों से भी व्यक्तिगत प्रयास कर सामग्री जुटायी है।

मुझे लगता है, भारत में कला के चिन्तन, कला परख की भाषा और उसकी परम्परा पर जोशी का यह कार्य हिन्दी में कला आलोचना का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। जो लोग हिन्दी में कला आलोचना की अपनी भाषा और परम्परा नहीं होने का रोना रोते है, उनको भी जोशी का यह संपादित कार्य एक बेहतरीन जवाब है।

 "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 18-6-2010

4 comments:

Prem Farukhabadi said...
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Prem Farukhabadi said...
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Prem Farukhabadi said...

आपने जो कहने की चेष्टा की वो सत्य है.आपकी प्रस्तुति अच्छी लगी.

Prem Farukhabadi said...
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