Friday, December 10, 2010

आधुनिक भारतीय कला की नयी आलोचकीय दीठ

कलाएं हमें समझ का नया आलोक देती है। कुछ हद तक जीवन जीने का एक नया अर्थ भी देती है। इसीलिए जब कभी किसी कलाकृति से हम प्रतिकृत होते हैं तो उसमें निहित कलाकार की भावनाओं, संवेदनाओं से अपने आप ही साक्षात् होता हैं। कलाकृति तब हमें अपनी लगती हमसे जैसे संवाद भी करने लगती है और इसी से उसको बनाने वाले का भी बहुत से स्तरों पर अपने आप ही मूल्यांकन हो जाता है। कला मूल्यांकन का मूलतः आधार भी यही होना चाहिए परन्तु कला पर केन्द्रित जो पुस्तकें इधर आ रही है, उन्हें पढ़ते लगता है वहां कलाकार प्रमुख है, उसकी कला गौण है। कलाकार का परिवेश, संस्कार, प्रेरणा, सम्मान, पुरस्कार, जीवन के हर्ष-विषाद ही वहां बहुधा मिलते हैं। कला और कलाकार के मूल्यांकन का आधार क्या यही सब कुछ है! ‘समकालीन कला के सम्पादक, आलोचक मित्र डॉ. ज्योतिष जोशी ने कुछ समय पूर्व जब अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारतीय कला’ भेजी तो लगा, उन्होंने भी प्रकाशक की किसी मांग को त्वरित पूरा किया है। पढ़ने के आपके एकसे अनुभव बहुतेरी बार पूर्वाग्रह उपजा देते हैं सो उनकी पुस्तक को इस पूर्वाग्रह ने ही तब पढ़ने नहीं दिया। किसी संदर्भ में कुछ दिन पहले पुस्तक को यूं ही जब टटोला तो लगा कलाकारों के अवदान पर लिखे की अतिअभ्यस्त संवेदना के संसार से भिन्न उन्होंने भारतीय कला के मर्म को इसमें गहरे से छुआ है। कलाकारो की सर्जना के अंतर्गत उनके बनाए चित्रों की बारीकियों में तो वह अपनी इस पुस्तक में गए ही हैं, कलाकार की अपनी ही कला के संदर्भ में की गयी स्वीकारोक्तियों के आलोक में वह पाठकों को कला कथ्य का भी अनायास जैसे नया संदर्भ इसमें देते हैं। राजा रवि वर्मा पर लिखी उनकी यह पंक्तियां देखें, ‘संगीत के स्वरों को उनके आकास(स्पेस) झंकृत करते हैं, नृत्य परिवेश रचता है, साहित्य का सौन्दर्य चरित्रों को समग्रता में रूपायित करता है और कला शेष कलाओं से समन्वित होकर रूपंकर का प्रतिमान बन जाती है।...’

बहरहाल, नंदलाल बसु, यामिनी राय, असित कुमार हालदार, गुरचरण सिंह, कंवल कृष्ण, अमृता शेरगिल, शरतचन्द्र देब, एम.एफ.हुसैन, चित्त प्रसाद, धनराज भगत, रामकुमार, अकबर पदमसी, तैयब मेहता, हकुशाह, अंजलि इला मेनन, बिकास भट्टाचार्यी, ए. रामचन्द्रन, बीरेन दे, सतीश गुजराल, एफ.एन.सूजा, वासुदेव एस. गायतोण्डे, सोमनाथ होर, मनजीत बावा आदि कलाकारों के अवदान पर लिखते वह उनकी कला का रचनात्मक परिचय तो देते ही हैं, स्वयं अपने आत्मानुभवों का एक नया तर्क विन्यास भी पाठकों के समक्ष रखते हैं। मसलन राजा रवि वर्मा के बारे में वह लिखते हैं कि उन्होंने भारतीय भावनाओं और सौन्दर्यशास्त्रीय अवधारणाओं की उपेक्षा की परन्तु इस बात में सच्चाई है कि उन्होंने ही भारतीय कला की आधुनिकता संभव की;यह अलग बात है कि अवनीन्द्रनाथ टैगौर के नेतृत्व में भारतीय कला का राष्ट्रवाद विकसित हुआ। ऐसे ही देवीप्रसाद रायचैधुरी के समानांतर वह रामकिंकर बैज की मूर्तिकला की स्वच्छन्दता की बात करते हैं तो रजा की कला को भारतीय दर्शन की खोज की परम्परा की दृष्टि से वह महत्वपूर्ण बताते हैं। रामकुमार की अमूर्ततता को वह गहरी अनुभूतियों की संज्ञा देते हैं तो के.जी.सुब्रमण्यनन के चित्रों की दृश्यभाषा के गंभीर भावों की लय पर जाते वह सूजा की कला की निर्वसन स्त्रियों को कला के बाजार से जोड़ते हैं। ए.रामचन्द्रन की कला में आख्यान और संदर्भों के विखंडन के साथ ही हकुशा की कला के मानववाद के साथ ही पणिकर की कला में पारम्परिक प्रतिमानों को खंडित कर उसमें समकालीन जीवन के जटिल ताने-बाने पर जाते ज्योतिष सोमनाथ होर द्वारा छापाकला को नई प्रविधि से और भोगी यातना से शिखरत्व पर पहुंचाने की चर्चा करना भी नहीं भुलते। ज्योतिष अपनी इस पुस्तक में कला के गूढ़ और गंभीर अर्थों से भारतीय कला को समझने की एक नयी आलोचकीय दीठ भी देते है। इस दीठ में पुस्तक के अंत में आधुनिक भारतीय कलाकृतियों के संजोए 48 रंगीन चित्र भी भरपुर मदद करते है।
"डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का साप्ताहिक स्तम्भ "कला तट" दिनांक 10-12-2010

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