Friday, December 24, 2010

सांवर सा ओ गिरधारी...ओ भरोसो भारी...

गान का रस जहां मिलता है वही संगीत है। भारतीय संगीत की अनवरत धारा से बड़ा इसका और उदाहरण क्या होगा जो आध्यात्मिक और भावात्मक जीवन का आज भी अनिवार्य अंग है। मंदिरों में आरती वन्दन के समय जाएं और पाएं, वहां जो ध्वनित होता है उसमें अनूठी कला की धारा जैसे प्रवाहित हो रही होती है। भले शब्द हमें वहां बहुतेरी बार समझ नहीं आ रहे होेते हैं परन्तु भीतर के आनंद के भाव सहज संप्रेषित होते हैं। मदिरों में ही तो हिन्दुस्तानी संगीत ने जन्म पाया है। हर प्रांत, स्थान के लोगों ने प्रभु की आराधना को अपनी समझ से स्वर दिए और इसी से शायद आरतियों का भी सृजन हुआ।

सामुहिक रूप में जब कभी किसी भी भाषा में ईश आराधना के स्वरों का प्रवाह होता है तो वह समझ आता है। मुझे लगता है, मूलतः यही तो है संगीत की कलात्मक्ता। आरती जब हम सुन रहे होते हैं तो समवेत शब्दों का आस्वाद ही नहीं कर रहे होते हैं बल्कि उनमें निहित भावों में आनंदानुभूति भी कर रहे होते हैं। तब लगता है, शब्द मात्र उन ध्वनियों का पुंज मात्र नहीं है जो बोली जाती है बल्कि वह ध्वनिशास्त्रीय या आक्षरिक ढ़ांचे पर स्थापित एक प्रकार से मानसिक अवधारणा है। इस अवधारणा में भले वह बहुतेरी बार पढ़त और गान की प्रक्रिया में ही अर्थ को पूरा करता हो परन्तु मूलतः उसकी सबसे बड़ी क्षमता अर्थोत्पादकता ही है। यह शब्द की कला शक्ति ही तो है जो उसे अर्थ से जोड़ती है।

कुमार गंधर्व का कहा याद आ रहा है, मधुर गला होने से ही कोई गायक थोड़े बन सकता है। महत्वपूर्ण यह है कि स्वरों पर आपकी हुकूमत कितनी है। जिसके लिए गाते हैं, उसमें आपकी श्रद्धा कितनी है। आरती गान वाले भले संगीत का क ख ग ही नहीं जानें परन्तु जब वह आरती गा रहे होते हैं तो संगीतकला को ही जी रहे होते हैं। वर्षो से अपने जन्मे-जाये शहर बीकानेर के लक्ष्मीनाथ मंदिर जाता रहा हूं। इस बार जब गया तो समवेत स्वरों में निहित शब्दों को समझने का प्रयास किया। पुरूष-महिलाएं विभोर हो प्रभु की आरती में लीन हैं। संगीत के अद्भुत रस का प्रवाह हो रहा है। एक साथ सधे हुए स्वरों का पान करते मन पवित्रता के सागर में गोते लगाने लगा। भूल गया कि शब्द समझने आया हूं।...शब्द नही भाव समझ आ रहे थे। वह भी ऐसे जिन्हें किसी ओर को कहां समझा सकता था! मैंने एक काम किया। आरती को अपने मोबाईल में रिकॉर्ड कर लिया। जयपुर जब आया तो उसे सुना। एक बार नहीं, बार-बार। समूह स्वरों में आरती के शब्द जो ध्वनित हुए, वह थे ‘सांवर सा ओ गिरधारी...ओ भरोसो भारी... ओ शरण तिहारी। ओ हर बिना मोरी, गोपाल बिना मोरी, लक्ष्मी रे नाथ बिना मोरी... कौन खबर ले...।...‘शहस्त्र गोप्यां रो गिरधरधारी। चक्करधारी...।’

जरा गौर करें गोपियों को गोप्यां और चक्रधारी को चक्करधारी कहा गया है। खालिश बीकानेरी भाषा में रची आरती को बचपन से सुनता रहा परन्तु उसके शब्दों में कभी गया ही नहीं। बस! संगीत के माधुर्य का ही पान करता रहा। जिस प्रकार से लोकगीतों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें किसने रचा, ठीक वैसे ही आरतियों के बारे में भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हें किसने रचा। हां, आंचलिक भाषा की मिठास के साथ उनमें संगीत के सास्वत स्वरों का प्रवाह हर जगह एक ही है। दरअसल वहां शब्द सत्तावान है और अर्थ नित्य। घुम्मकड़ी के अपने स्वभाव के कारण देशभर के मंदिरों में गया हूं और पाया यही है कि वहां आरती के शब्द भले अलग हों परन्तु उनमें सौन्दर्यपरक आनंद का हेतु तो एक ही है। यही तो है संगीत कला! उपनिषद् कहते हैं, ‘रसो वै सः’ अर्थात् रस ही आनंद है। अन्य ललित कलाओं से संगीत कला निराली है। संगीत में एक साची नहीं सव्यसाची होते हैं कलाकार।...आनंद रस की बरखा करते!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर  प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 24-12-2010

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