Saturday, December 18, 2010

बंधनों से मुक्त इन्स्टालेशन आर्ट का यह नया दौर

कहते हैं, यह दौर संस्थापन कला का है। संस्थापन कला माने इंस्टालेशन आर्ट। पश्चिम में ही नहीं बल्कि भारत में भी इस तरफ हर ओर, हर छोर कलाकारो में रूझान साफ दिखायी देने लगा है। यूं भी हर कला युगीन परिवर्तनों की संवाहक होती है। स्वाभाविक ही है कि युग में जो कुछ नया होता है, उसे कलाएं स्वीकार करती हुई ही सदा आगे बढ़ती है। जो आज है, कल वह पुराना होगा ही। आधुनिकता के अंतर्गत बंधनों से मुक्त इन्स्टालेशन आर्ट का भले यह नया दौर कहा जा रहा हो परन्तु मुझे लगता है, संस्थापन कोई नई चीज नहीं है। कला में अभिव्यक्ति की इसे एक एक नई भाषा जरूर माना जा सकता है। ऐसी भाषा जो कैनवस के बंधन से मुक्त है। स्कल्पचर के निर्धारित आकार का बंधन वहां नहीं है। वहां स्क्ल्पचर और कैनवस पर खींची जाने वाली रेखाओं, खुरच और रंगों की एप्रोच तो है परन्तु सब कुछ वहां वर्चुअल है। यानी आभाषी। वहां ध्वनि है, रंग है, डिजिटल इमेजेज है और इन सब में दृश्यों को विशेष ढंग से रूपायित करने की कला की सर्वथा नयी दीठ भी है परन्तु मूल बात है संयोजन। बनी बनाई चीजें इन्सटॉलेशन में मिल जाती है। कला की दीठ से उनका एक प्रकार से संयोजन ही तो फिर कलाकार करता है।

इन्स्टॉलेशन में एक रंग या एक आकृति या फिर यूं कहें आकृतियों के कोलाज, ध्वनियों का विस्तार हमे ंविशुद्ध ऐन्द्रिय आनंद प्रदान कर सकते हैं। वहां कलाकार किसी एक कला के सरोकार लिए नहीं होता, उसकी समझ का वहां विस्तार है। उसके सरोकार व्यापक रूप में कला के बहुत से रूपों से जुड़े होते हैं। मौन भी अगर वहां है तो वह एक खास अंदाज में उद्घाटित होता है। समय की पदचाप से जुड़ी आकृतियों की अनुभूतियां वहां है। यह नहीं कहा जा सकता है कि वहां संगीत है तो वह गायन या वादन के रूप में ही है। यह नहीं कहा जा सकता है कि वहां चित्र है तो कैनवस पर और मूर्ति में उकेरा यथार्थ या अमूर्त है। संगीत है तो वह सुनी हुई आवाजों में निहित नहीं है। चित्र है तो वह देखे हुए रंगों में नहीं है। जो है, वह रूपाकार में नहीं, रूपाकार और उससे संबद्ध सामग्री के बीच की चीजों में है। बल्कि यूं कहना चाहिए कि वहां रूपाकार और रूपायित करने के बीच का भेद बहुत से स्तरों पर समाप्त होता लगता है। वहां कोई बंधन नहीं है। विषयवस्तु की अधीनता नहीं है। जो है मुक्त है। बंधन रहित। देखी या सुनी हुई, अनुभूत की हुई की बजाय बहुत कुछ वहां कल्पित है। संवेदना में बुना कल्पना का ताना-बाना। ऐसा जिसमें बहुत कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहने की छटपटाहट है।

तकनीक का सशक्त पक्ष इन्स्टॉलेशन आर्ट में है परन्तु इस बात पर फिर भी हमें गौर करना ही होगा कि वह वहां अभिव्यक्ति का साधन है, साध्य नहीं। रंगीन वर्णो, आयतों और लकीरों का तनावपूर्ण संयोजन और कम्प्यूटर के साथ ही विभिन्न अन्य स्तरों पर अभिव्यक्त इंस्टालेशन आर्ट को ऐसे में कला नहीं कला की प्रतिछाया ही क्या नहीं कहा जाएगा!

कलाकार अन्तर्मन में बनने वाली छवियों, और स्थान विशेष के साथ जुड़ी यादों के बिम्बों को सहज और आत्मीय संस्थापनों के जरिए ही तो कला में अभिव्यक्त करता है। इस अभिव्यक्ति में आभासी (वर्चुअल) और वास्तविक के बीच के द्धन्द केा भले ही इन्स्टालेशन आर्ट के तहत ही अधिक सशक्त ढंग से उजागर किया जा सकता है, परन्तु छवि विज्ञान यानी इमेजोलॉजी के अंतर्गत यदि बगैर किसी रचनात्मक सोच के साथ कुछ किया जाता है तो उसकी कोई सार्थकता है क्या? इस पर विचार किए जाने की जरूरत क्या इस दौर में अधिक नहीं है। आप ही बताईए!

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 17-12-2010

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