दीवान मन्ना के छायाचित्रों में छवियों का अनूठा व्याकरण है। चित्रात्मक प्रवाह। यथार्थ में जो दिख रहा है,उसके दर्शाव का उपक्रम भर नहीं है उनके छायांकन बल्कि उससे परे संवेदना के बहुत से कोलाज उनमें हैं। द्रश्य की अनंत संभावनाएं लिए। आप छायाचित्र देख रहे हैं और जेहन में औचक कोई कहानी घुमने लगती है। दृष्य की अनंतता में अनूठी किस्सागोई लिए हैं उनके छायाचित्र। मानों किसी एक दृश्य के बहाने आप उससे संबद्ध दृष्यों की पूरी की पूरी एक श्रृंखला का आस्वाद कर रहें हैं। कैमरे के उनके रूपाकारों के चाक्षुष अनुभव चलचित्र मानिंद हैं। उनमें पेंटिंग की एप्रोच है। रंगों की अनूठी भाषा है और है अनुभवातीत गीतात्मकता।
दीवान मन्ना से पहले पहल चंडीगढ़ में भेंट हुई थी। उनकी छायाचित्रकला से पहले पहल वहीं रू-ब-रू हुआ। बाद में उनके सौजन्य से ही उनके छायालोक का निंरतर घूंट-घूट आस्वाद किया। मुझे लगता है, देश के वह पहले ऐसे छायाकार है जिन्होंने छायांकन में देह का व्याकरण रचा है। यह ऐसा है जिसमें छवि विज्ञान की अद्भुत सौन्दर्य सृष्टि है। इस सृष्टि में दीवान कला के उस संसार में हमें ले जाते हैं जहां द्रश्य हमसे काव्यमय संवाद करता हैं-समय संवेदना के अनगिनत दृष्टांत लिए।
अखबार में लिपटी स्त्री के छायांकन नेगेटिव प्रयोग में वह तारीखों का छायाचित्र इतिहास लिखते हैं तो कुछेक छायाचित्रों के पार्श्व में राजस्थान-जैन लघु चित्रषैलियों का उपयोग करते वह हमारी संस्कृति का भी अलग से गान करते हैं। युद्ध और आंतक से उपजे डर को उन्होंने कैनवस-कैमरे का संयोग करते सर्वथा नये अर्थअभिप्राय दिए हैं।
मुझे लगता है, कैमरा उनकी कला की तकनीक और माध्यम जरूर है परन्तु छायांकन में मानवीय अनुभुतियों का जो लोक वह रचते हैं उनमें हमारी विचार संपन्न संस्कृति हर ओर, हर छोर उद्घाटित होती है। मसलन स्त्री-पुरूष देह के उनके छायाचित्र। नग्न देह के अनगिनत रूपकों में कल्पनाशीलता के उर्वर प्रयोगों का उनका यह कला आकाश द्रश्य के अनूठे बिम्ब हमारे समक्ष रखता है। यहां जंगल होता मन है तो बोडी रंगांकन में संवेदनाओं का अनूठा उत्स भी। महत्वपूर्ण यह है कि ऐसे तमाम छायाचित्रों में अपने मॉडल स्वयं दीवान मन्ना ही हैं। स्वयं को अपनी ही संवेदन आंख से देखते कैमरे को टाईपोड करके लिए है उनके यह छायाचित्र।
बहरहाल, दीवान मन्ना प्रयोगधर्मिता की अनूठी अनुभवजन्यता में छायांकन के जरिए भीतर के अपने कलाकार को बार-बार बाहर लाते हैं। अस्सी के दशक में दीवान ने श्वेत-श्याम छायाचित्रों के अंतर्गत समय के अवकाष को पकड़ते मानवाकृतियों के जरिए भिन्न भाव-भंगिमाओं के साथ ही छवि स्थापन्न संवेदना को अपने कैमरे से मुखरित किया था तो 1985 के दौरान देश में हुए साम्प्रदायिक दंगों, हिंसा की तीव्रता को छायाचित्र विषय बनाते उन्होंने पेंटिंग और छायाचित्रों का एक प्रकार से फ्यूजन किया था। तब चित्रों के नेगेटिव अक्सों के साथ ही रक्ताभ आकाष में, काले घने अंधेरे, अखबार में लिपटेपन में हिंसा के उनके छायाचित्र प्रतीक और बिम्ब छायांकन को सर्वथा नये अर्थ दे रहे थे। कभी उन्होंने अपरिचय के समुद्र को व्याख्यायित करती छायाचित्रों की एक सीरीज बनायी थी। झीने आवरण में लिपटी नारी देह के बहाने तब उन्होंने प्रवाहमय रूपाकारों का सुगठित संयोजन अपने कैमरे से किया था।
दीवान मन्ना के छायाचित्र विचार संपन्न संस्कृति का अनूठा प्रवाह लिए हैं। इस प्रवाह में देह का व्याकरण है, हिंसा और शांति का चाक्षुष रूप है, पारदर्शिता में अपरिचय की परिभाषा है और है मनुष्य की अंर्तनिहित भावनाओं, संवेदनाओं का अनूठा उजास भी। शब्द संवेदना के साथ चित्रात्मकता का सांगीतिक आस्वाद कराते दीवान छायांकन के जरिए कला की नई भाषा गढ़ते है। इस नई भाषा में कैनवस और चलचित्र का आस्वाद होता है। भले उनके छायाचित्र बहुत से स्तरों पर सामाजिक सीमाओं को लांघते भी हैं परन्तु संवेदना की हमारी आंख को छायाकला की नई रौशनी भी अनायास ही देते हैं।
डॉ.राजेश कुमार व्यास का राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर
प्रति शुक्रवार को प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" 5-3-2011
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