Friday, March 25, 2011

अलंकारों का सांगीतिक आस्वाद

एस.जी.वासुदेव का कला संसार बहुआयामी है। एक ही समय में वह बहुत से कला माध्यमों में अपने को साधते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि उनकी कला में लोक के उजास के साथ आधुनिकता का सर्वथा नया मुहावरा भी है। माने टेक्सचर में वह लोक कलाओं के नजदीक ले जाते हैं तो रेखाओं के जो बिम्ब और प्रतीक हमारे समक्ष रखते हैं, उनमें आधुनिकता का ताना-बाना भी है। पेंटिंग, ड्राइंग, कॉपर रिलीफ के उनके कलाकर्म में आकृतियांे और एब्स्ट्रेक्ट में गजब की लय है। मुझे लगता है, भिन्न माध्यमों में रेखाओं के गत्यात्मक प्रवाह में वह अपनी कलाकृतियों के जरिए हमें सांगीतिक आस्वाद कराते हैं।

बहरहाल, पिछले दिनों दिल्ली में कलाकार मित्रों के साथ ललित कला अकादेमी की कलादीर्घा में वासुदेव की कला से रू-ब-रू होते लगा, उनकी कलाकृतियों में समृद्ध टेक्सचर के साथ रेखाओं की अनूठी जुगलबंदी है। भीतर की अपनी सृजनात्मक ऊर्जा मंे वह बहुत से कला माध्यमों के जरिए दरअसल कला का अलंकार लोक रचते हैं। इसमें रेषम ट्रेपेस्ट्रीज में चाक्षुष जो है, उसमें लोककलाओं का अद्भुत सौन्दर्य भी है। मसलन वहां रेखीय आकृतियों में जो दृष्य उभरते हैं, मानों वह कोई कथा कह रहे हैं। सहज, सरल और कोमल रंगों में उनके दीवार दरी चित्रों की ही मानिंद कॉपर का रिलिफ वर्क भी है। तांबे में मानव आकृतियों के साथ ही पत्तियां, फूल, चांद, तारे, पिरामिड की बहुतेरी आकृतियों में अलंकार प्रधान रूपाकृतियों में रेखीय कार्य की सृक्ष्मता में कला की उनकी बारीकियों को सहज अनुभूत किया जा सकता है। सरल रूपाकारों में वहां अंतर्मन की सूक्ष्म अनुभूतियों के बिम्ब अलग से देखने वाले को आकर्षित करते हैं। तेल रंगों की उनकी कलाकृतियों में प्राकृतिक दृष्यावलियों मन को मोहती है। शायद इसलिए कि वहां रंगों का अनूठा प्रवाह है। नीले, धुसरित रंगों में बादलों, सागर की लहरों का अहसास कराते।

विविध माध्यमों के अंतर्गत कार्य करते वासुदेव की कलाकृतियों में स्मृतियों के अनूठे कोलाज भी हैं। रेखीय प्रभावों में वह बिम्बों और प्रतीकों के जरिए जो चित्रभाषा हमारे समक्ष रखते हैं, उसमें रूपाकारपरक चुस्ती है। यह चुस्ती कॉपर के उनके कार्य में भी है। खास तौर से वह कॉपर में बिन्दुओं के जरिए एन्द्रिकता और वस्तुपरकता को सर्वथा नये अर्थों में उद्घाटित करते हैं।

कैनवस, मूर्तिषिल्प और तमाम दूसरे माध्यमों में कला के अंतर्गत इधर जटिलता का जो व्याकरण रचा जा रहा है, उससे परे वासुदेव की कलाकृतियोें में उभरी सहजता भीतर के हमारे खालीपन को जैसे भरती है। लोककलाओं से अनुप्रेरित उनकी कला में सर्वथा देषी मुहावरा है। वहां प्रतीक और बिम्ब है परन्तु यह ऐसे हैं जिनमें हम अपने होने की तलाष कर सकते हैं। उनके लैण्डस्केप, दीवार दरी और कैनवस पर उभरी मूर्त-अमूर्त कला में रंगों की कोमल लय है तो आस-पास के हमारे परिवेष का सहज दर्षाव भी है। लहरदार आकारों का उनका कला लोक हमें अपना लगता है तो इसकी बड़ी वजह यह है कि उसमें अंतर्मन प्रफुल्लता है। जो कुछ है वह सहज है, उसके लिए किसी प्रकार का प्रयास किया हुआ नहीं लगता। कभी पिकासो ने समसामयिक बिम्बों का सृजनात्मक विरूपीकरण किया था परन्तु मुझे लगता है, वासुदेव लाईन और टैक्सचर की अपनी निजता में लोककलाओं के अंतर्गत एकरसीय आकृतियों को नया परिवेष देते हुए उनका अपने तई विरूपीकरण करते हैं। विविध कला माध्यमों में वह कल्पना और अनुभवों के अनूठे दृष्यालेख हमारे समक्ष रखते हैं। मुझे लगता है, यह वासुदेव की कलाकृतियों में निहित लोक का उजास और कोमल रंगों का दृष्यप्रभाव ही है जो हमें उनसे मुक्त नहीं होने देता है, एकाधिक बार देखने के बाद भी। सहज, सरल बिम्बों में स्मृतियों, अनुभवों की लय में रची-बसी उनकी कलाकृतियां का यह अपनापन ही उन्हें ओरों से क्या जुदा नहीं करता!

राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 25-3-2011

No comments: