Friday, March 18, 2011

विमर्श में सांस्कृतिक समीक्षा

काल और दिक् की सीमा से परे एक व्यापक सांस्कृतिक प्रक्रिया के भीतर ही यह समाज अपनी तमाम स्मृतियों, प्रवृतियों, खामियों के साथ सदा मौजूद रहता है। वहां बहुत कुछ अव्यक्त होता है। संगीत, नृत्य, नाट्य और चित्रकलाएं ही हैं जो इस अव्यक्त को व्यक्त करती है। हमारी जो संस्कृति है, उसकी संवाहक यह कलाएं ही तो हैं। सोचिए! यदि जीवन से कलाओं को निकाल दिया जाए तो फिर बचेगा क्या! इसीलिए शायद कहा गया है, कलाएं शरण्य हैं। उनमें रचते, उनमें बसते ही इस जीवन को गहरे से हम व्याख्यायित कर सकते हैं।

बहरहाल, आलोचक मित्र राजाराम भादू की पहल पर ‘समान्तर’ ने साहित्य और संस्कृति से संबद्ध दो दिवसीय आयोजन का एक सत्र जब ‘विमर्ष में सांस्कृतिक समीक्षा’ रखा तो सुखद अचरज हुआ। संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकलाएं संस्कृति के उपादान ही हैं, बावजूद इसके सांस्कृतिक समीक्षा न जाने क्यों कभी विमर्ष में रही ही नहीं। स्वाभाविक ही है, इसी से संस्कृति से संबद्ध कोई सोच हमारे यहां कभी बन ही नहीं पाई। जब सोच ही नहीं बन पाई तो पत्र-पत्रिकाओं में सांस्कृतिक समीक्षाओं के क्या हाल होंगे, इस पर कुछ कहना बेमानी ही होगा। पत्र-पत्रिकाओं में में सांस्कृतिक कार्यक्रमों और उन से संबद्ध तमाम सूचनाएं होगी परन्तु उन्हें पढ़कर कलाकार और उसकी कला के बारे में कोई धारणा बनती है, ऐसा मुझे नहीं लगता।

सवाल सांस्कृतिक समीक्षा के हेतु का भी है। मुझे लगता है, जितना महत्व जीवन में कलाओं का है, उतना ही महत्व उन पर लिखे का भी है। यह लिखा खाली सूचनाप्रद ही होगा तो कलाएं हमें क्योंकर झकझोरेगी! उनमें निहित पर कैसे फिर हम फिर जा पाएंगे। तब धीरे-धीरे क्या यह नहीं होगा कि हम कलाओं से और कलाएं हमसे दूर होती चली जाएगी। सोचिए! तब क्या यांत्रिक ही नहीं हो जाएगा यह पूरा जीवन।

आपको नहीं लगता, सांस्कृतिक समीक्षाएं ही हमें कला और कलाकारों के निकट ले जाती है। बहुतेरी बार कलाओं के समग्र परिवेष को समझने की प्रक्रिया से आगे बढ़कर वह हमें व्यापक और उदात्त दृष्टिकोण भी अनायास ही दे देती है, चूंकि उसमें कला को अनुभूत करने का रस जो निहित होता है। ...और यह रस ही तो है जिससे यह पूरा जीवन आबद्ध है। रस माने आनंद। जीवन की लय। तेरहवीं शताब्दी में सारंगदेव ने संगीत में रस की बात पर कही थी और भरतमुनि ने तो इस रस की तुलना व्यंजनों के आस्वाद से की है। सोचिए, यदि हमारे सांस्कृतिक परिवेष में जो कुछ हो रहा होता है, उसके इस रस आस्वाद का ही हमें पता नहीं हो तो फिर उसकी सार्थकता क्या है। यह तो वही बात हुई कि भोजन करें और उसमें रस नहीं हो। सांस्कृतिक समीक्षा कलाओं का रस आस्वाद कराती है, उन्हें भी जो केवल पाठक या संचार माध्यमों के ही प्रयोगकर्ता हैं। आप प्रेक्षागृह में नहीं गए हैं, आपने संगीत को नहीं सुना है, कलादीर्घा में नहीं गए हैं फिर भी आपको वहां जो हुआ है, उसका रस मिल रहा है। सांस्कृतिक समीक्षा यही करती है, कला के प्रति जिज्ञासा, उसे स्वयं अनुभूत करने की ललक पैदा करती हुई।

बहरहाल, ‘विमर्ष मंे संास्कृतिक समीक्षा’ की परिणति क्या होगी, नहीं कह सकता परन्तु समानधर्मा कवि, लेखक प्रेमचंद गांधी, नाट्य अभिनेता, निर्देषक रणवीरसिंह, अषोक राही, पत्रकार, संपादक ईषमधु तलवार, मायामृग, कथाकार रामकुमार के साथ ही तमाम दूसरे सहभागियों ने सांस्कृतिक समीक्षा की दषा और दिषा पर जो मुद्दे उठाए वह सारे ही मौंजू थे। इससे बड़ा इसका उदाहरण और क्या होगा कि इस महत्ती विमर्ष पर दूसरे दिन लगभग तमाम समाचार पत्र मौन थे। यह जब लिख रहा ख्यात चित्रकार स्वरूप विष्वास की मौन पर मुखर कलाकृति का आस्वाद भी कर रहा हूं। आप भी करिए।


राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर  प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 18-3-2011

No comments: