Friday, April 8, 2011

लोक संस्कृति का सांगीतिक चितराम


 पारम्परिक लोक वाद्यों के साथ लोक कलाकारों के हर्षित चेहरे। हरितिमा से आच्छादित वातावरण और प्रेक्षागृह की मानिंद खुले आसमान के नीचे बना मंच। ऐसा जिसमें सैंकड़ों कलाकार सहज नृत्य, गायन और वादन कर सके।...अभी कार्यक्रम आगाज में पौन घंटे का समय था, मुझे लगा क्यों नहीं इस समय का उपयोग लोक मन को टटोलने में ही किया जाए सो कुछेक लोक कलाकारों से बतिया भी लिया। लोक कलाकारों के कहन में गजब का उत्साह, उमंग।...अंतराल बाद ही नगाड़े बजने के साथ ही कलाकार भी अपनी प्रस्तुतियों के लिए तैयार हो मंच के पार्ष्व में एकत्र होने लगे थे। आंखों के सामने मंच पर वह माहौल जैसे जीवंत होने लगा जिसमें हिल-मिल रहते हैं हम सब। अजान होने के साथ ही बज उठे ढोल और नगाड़े। संस्कृति की सौरम चहुं ओर फेलने लगी। यह हमारी समृद्ध लोक संस्कृति ही है जिसकी लय में सहज हम सब बंध जाते हैं...कभी मुक्त न होने की चाह रखते।

बहरहाल, यह राजस्थान दिवस का आयोजन था। उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति का सांगीतिक चितराम। ढलती सांझ में अजान से जैसे सुबह हुई। खड़ताल के साथ समवेत गायन, वादन और नृत्य। जातीय संस्कारों, परम्पराओं का अनुठा भव। सच! लोक संस्कृति की सुबह...एक-एक कर घुमर, गैर, तेरहताली, चरी, कालबेलिया, कछी घोड़ी, मांगणियार लोक गीतों, मयुर नृत्य, गींदड़, चकरी...आदिवासी कलाओं के उजास से नहा उठे तमाम उपस्थित लोग। दृष्य-श्रव्य में राजस्थान का अतीत, परम्पराएं जीवंत हो उठी। खालिस लोक ही नहीं था वहां बल्कि बहुत से स्तरों पर शास्त्रीयता का मेल भी था। मसलन कथक में निबंध लोक राग, लोक नृत्य। लंगा, मांगणियार कलाओं में निहित सूफी कलाम। लोक कलाकार नाच रहे थे, गा रहे थे परन्तु उनमें ठेठ शास्त्रीय संगीत, सिनेमाई गीतों की इधर प्रचलित धुनों का भी समावेष था।

मुझे लगता है, लोक कलाकार इधर अपनी पारम्परिक कलाओं के साथ आम जन की रूचियों पर भी जाने लगे हैं। शायद इसका बड़ा कारण उनके समक्ष मौजुदा रोजी-रोटी संकट भी है। परम्परा से उनका मोह तो है परन्तु आधुनिकता और जन रूचियों में हो रहे परिवर्तनों को स्वीकार करने की मजबूरी भी। फिर लंगा, मांगणियार तो देष की सरहद लांघते विदेषों में भी अपनी कला ले जा चुके हैं, स्वाभाविक ही है व्यावसायिक सफलता की समझ का उनका आकाष बड़ा हो गया है। यही कारण है, यह लोक गायक अपनी पारम्परिक धुनो में शास्त्रीय और लोकप्रिय सिनेमाई धुनों का तड़का लगाने लगे हैं। हालांकि कालबेलिया जैसी नृत्य विधाएं अभी भी इससे अछूती अपने मूल को बचाए हुए भी है परन्तु बहुत से दूसरे लोकगीतों, लोकनृत्यों में सूफी कलामों में पारम्परिक लोकगींतो का राग निबंधन और वह आलाप, आरोह-अवरोह है जिसमें ध्वनियों का तीव्रतम उतार-चढाव उत्तेजकता के माहौल की निर्मिति करता है। कहीं सिनेमाई धुनों को उधार लेते भी परम्परा के मूल में रूप परिवर्तन किया गया है। उनका आस्वाद करते मन में कहीं यह खटका भी हुआ कि भविष्य में उन असल लोक धुनों का क्या होगा, जिसमें रचा-बसा रहा है हमारा तन और यह मन।

जैसे-जैसे लोक व्यवहार में परिवर्तन हुआ है, वैसे-वैसे ही हमारे यहां संगीत में भी निरंतर परिवर्तन हुआ ही है। जीवन की एकांगिता को तोड़ते लोक संगीत में निहित शास्त्रीयता का लोकोन्मुखीकरण उचित ही है परन्तु सोचने की बात क्या यह नहीं है कि संगीत का यह नया रूपान्तरण लोक लय को रौंदने वाला है। भविष्य में खतरे की घंटी क्या यह नहीं है कि इससे असल लोक धुनें फिर हम चाहकर भी नहीं पा सकेंगें। आखिर गांवों में बसे हमारे यह पारम्परिक लोक कलाकार ही तो हैं, जिन्होंने अब तक लोक के हमारे उजास को हमारे लिए बचा कर रखा हुआ है!

राजस्थान पत्रिका  समूह के "डेली न्यूज़" के एडिट पेज पर प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 8-4-2011

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