Friday, April 29, 2011

अनुभूतियों की सघनता का उजब़क न्यास

अवधेष मिश्र के चित्र भीतर की हमारी संवेदना को जगाते हैं। उनके चित्र अंतर्मन अनुभवों और परिवेष की सच्चाई को जीते हैं और आत्म-अनात्म के साथ कला के तमाम आनुषांगिक तत्वों को बेहद खूबसूरती से हमारे समक्ष रखते हैं। समय की संवेदना गहरे से जीते इधर उन्होंने चित्रों की जो श्रृंखला तैयार की है, उसमें खेतों में खड़े रहने वाले बिजूके को माध्यम बनाया है।
अवधेष ने बिजूके के उजब़क न्यास में समय और समाज की तीव्रतम अनुभूतियों की सघनता को अनुभूत किया जा सकता है। वैसे भी बिजूका खेत-खलिहानों में खड़ा हमारी आंखों से ओझल हुआ भी कहां है! दिन में वह खेत की रक्षा करने वाले रक्षक के रूप में दिखाई देता है तो सुनसान जंगल में पेड़ों के बीच से झांकने पर वह जंगली जानवर सरीखा प्रतीत होता है। दोनों हाथ फैलाए कभी लगता है, वह हमें अपने पास बुला रहा है तो कभी अंधेरी रातों में उसकी आकृति भयावह, डरावनी लगती है। अजीबोगरीब शक्ल अख्तियार करता वह कभी विदूषक की भूमिका के रूप मंे हमारे सामने आता है। कभी सच तो कभी धोखा लगता है परन्तु खेत में उसका होना हमारी संतुष्टि है। भले वह कुछ कर नहीं सकता परन्तु कुछ कर सकने की साक्षी जरूर देता है और इस साक्षी से ही कईं बार पषु पक्षी भ्रम में पड़ खेत से दूर रूख कर लेते हैं।...बिजूका निरीह है परन्तु दीठ से भयावह भी, सभ्य भी और खेत की रक्षा कर सकने वाला संस्कारी भी। शायद इसीलिए अवधेष ने बिजूके को माध्यम बनाते हुए उसके जरिए जीवन की उथल-पुथल, विषमताओं, विद्रुपताओं, विडम्बनाओं और तिरोहित होते मूल्यों को रूपायित किया है। भले बिजूके के रूप में उन्होंने कैनवस पर यह सब जिया है परन्तु रंग और रेखाओं की लय में उनका बिजूका मनुष्य की सोच और बदलते समय की धारणाओं का प्रतिनिधित्व करता है। विद्रुपताओं और विडम्बनाओं का निरूपण करते हुए भी अवधेष ने बिजूका को कैनवस पर सर्वथा नया परिवेष दिया है। एक बार नहीं। बार-बार। उनके बिजूके को देखना नयेपन में जाना है।
अवधेष का बिजूका और साथ की आकृतियों, पार्ष्व के रंगों, रेखाओं के अर्थ और अभिप्राय धीरे-धीरे प्रकट होते है। भले अवधेष ने खेत में खड़े बिजूका के उजब़क आकार को अपने अवचेतन मन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है परन्तु इसमें रंगों की संपन्नता भी अलग से ध्यान खींचती है। उनके बरते रंग, रेखाओं की कोमलता, सहजता और यथार्थ ऐन्द्रियबोध की उनकी समग्र सृजनात्मकता को भी अलग से प्रतिबिम्बित करती है। किसी एक रंग की बजाय अवधेष का कैनवस बहुत से ऐसे चटख रंगों से भी सज्जित हैं, जिन्हें आम तौर पर बरता नहीं जाता है। गाढ़े चटख बैंगनी, गहरे हरे, नीले, लाल, पीले रंगों के जरिए विषम परिस्थितियों में भी रहने वाली ग्रामीण उत्सवधर्मिता को जैसे कैनवस पर जीते हैं। उनका बिजूका प्रतीक है उस सभ्यता का जिसमें हम जी रहे हैं और जो कईं स्तरों पर हमें जी रही है।
बिजूका चित्र श्रंखला में अवधेष का टेक्सचर बेहद समृद्ध है। बारीक रेखाएं टैक्सचर की पूरक है। शायद इसका कारण यह भी है कि वह रेखांकन और चित्रण दोनों ही एक साथ करते हैं। उनके बिजूका के साथ के दृष्यों की गतिमयता की सूक्ष्म से सूक्ष्म सचलता को भी पकड़ा जा सकता है। मसलन उजब़क आकार के बिजूका के पास मंडरा रही चिड़िया, साथ खड़ा कोई जानवर, दूर झांकता चांद या सूरज, लहलहाती फसलें, पास, बहती नदी, दूर तक जाती कच्ची सड़क और भी बहुत सारी चीजें। मुझे लगता है अंतरंग की अविच्छिन्नता के स्थायित्व के अंतर्गत अवधेष के बिजूका की उपस्थिति से बड़ा कला का और मानवीय प्रमाण भला और क्या होगा!
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 29-4-2011

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