Saturday, April 2, 2011

उत्सवधर्मी संस्कृति का चाक्षुष लोक


हमारे यहां कहा गया है, ‘कलयति स्वरूपं आवेषयति वस्तुनि वा’ माने जो वस्तु के रूप को संवारे वह कला है। चित्रकला की बात करें तो वहां मनोरम दृष्य, उल्लास और उमंग के भावों का सृजन ही बहुतेरी बार चाक्षुष सौन्दर्य की परिणति होता है। कला का यही तो वह लालित्य है जो हमें रस देता है।

बहरहाल, राजस्थान दिवस पर इस बार कला के इस लालित्य को गहरे से अनुभूत करते लगा, बच्चों में अपने परिवेष और दृष्य को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता है। यथार्थ को हुबहु की बजाय अपने तई नई सौन्दर्य सृष्टि देते उनका संवेदनषील मस्तिष्क एन्द्रिकता को रूपायित करते सोच में सर्वथा स्पष्ट है। जवाहर कला केन्द्र में बच्चों की तत्स्थलीय चित्र प्रतियोगिता में राजस्थान की उत्सवधर्मी संस्कृति, चित्ताकर्षक पर्यटन स्थल, विरासत के साथ ही यहां के सुरम्य परिवेष के उकेरे चित्रों में निहित उस दीठ पर औचक अनायास ध्यान जा रहा था जिसमें मरूभूमि की भूली बिसरी परम्पराओं की एक प्रकार से पुर्नसंरचना थी। पहले दिन सामान्य बच्चों की प्रतियोगिता में एक बच्चे ने केवल धोरे पर ऊंट सवार को दिखाते आगे का स्थान पूरी तरह से खाली छोड़ स्पेस की अद्भुत सर्जना की तो एक ने मेले के उल्लास में आकृतियों के अद्भुत कोलाज रचे थे। कुछ चित्र ऐसे थे जिनमें राजस्थान के ऐतिहासिक स्थलों के साथ संस्कृति के भिन्न सरोकारों के पार्ष्व में राजस्थानी वाद्य यंत्र बजाते कलाकार थे। लगभग सभी चित्रों में किसी एक विषय की बजाय राजस्थान को समग्रता से जैसे अभिव्यक्ति दी गयी थी। दृष्य चलचित्र की मानिंद नजरों के सामने आ रहे थे। रंग, रेखाएं, आकृतियां और संवेदनषील भावों का बहुत सारा अमूर्तन भी। माध्यम से अधिक आषय की अर्थवत्ता। सृजन का अद्भुत लोक।

दूसरा दिन विषेष बच्चों के चित्रों से रू-ब-रू होने का था। हमसे अलग दुनिया के यह वह बच्चें हैं जो न सुन सकते हैं और न बोल सकते हैं परन्तु कला अभिव्यक्ति के उनके उजास में ध्वनि का अद्भुत लोक है। मुझे लगता है, भीतर का उनका भव बोलता, गाता, झुमता और उत्सव मनाता हम सबसे कहीं अधिक मुखर है। मसलन एक चित्र में छोटी सी एक बच्ची ने रंगों को उड़ेलते अपने सपनों के आकाष के अद्भुत रूपाकार बनाए थे तो एक ने गहरा नीला रंग और उसमें उभरती सोन मछली, तैरते दूसरे जीवों का जो स्वप्न लोक गढ़ा, उसे छोड़ने का मन नहीं हो रहा था। एक बच्चे ने रंगों के पार्ष्व में दो हाथी निकाले। ऐसे, जैसे बाहर निकलकर हमसे अभी बतियायेंगे। फूल, पत्तियां, कठपुतलियां, मेले-उत्सव और झुमता-गाता मन वहां था। कहीं कोई उदासी, नीरवता नहीं। हर ओर अंतर की उत्सवधर्मिता। अपने को व्यक्त करने की अद्भुत सामर्थ्य वहां है। अपने परिवेष से विमुख नहीं बल्कि हमसे कहीं अधिक मुखर हैं यह विषेष बच्चे। शायद इसीलिए उनके बनाए चित्रों को देखकर पर्यटन, कला एवं सस्कृति विभाग की प्रमुख शासन सचिव उषा शर्मा के मुंह से औचक निकल ही पड़ा, ‘राजस्थान दिवस आयोजनों में भाग लेने का यह अनूठा अनुभव है। हम इन चित्रों को प्रिंट करा सार्वजनिक करेंगे। लोग देखे तो सही अद्भुत यह कला।’

बहरहाल, पर्यटन विभाग के सहयोग से ललित कला अकादमी द्वारा आयोजित बच्चों की चित्रकला प्रतियोगिता में निर्णायक मंडल सदस्यों डॉ. नाथुलाल वर्मा, डॉ. अर्चना जोषी के साथ यह खाकसार दो दिन बेहद मुस्किल में भी रहा। यह तय कर पाना बेहद कठिन था कि पुरस्कार के लिए कौनसे चित्र चुने जाए परन्तु धर्म का निर्वहन तो करना ही था सो किया ही। हां, बच्चों के मनोलोक के अंतर्गत सृजन के स्वाभाविक रचनात्मक प्रवाह से साक्षात् का यह ऐसा अनुभव रहा है, जिसे कभी बिसरा नहीं पाऊंगा। चाक्षुष सौन्दर्य देखते शब्द गूंगे जो हो गए थे वहां!

राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित
डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 1-4-2011

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