हिगेल के सौन्दर्यानुभूति आकाश में चीजों को, देखे हुए दृश्यों को फिर से देखने की चाह जगती है। शायद इसलिए कि वह भीतर के हमारे चिंतन को झकझोरते हैं। जो कुछ हमारे समक्ष है, उसके बारे में पूरी की पूरी हमारी धारणा को बदलते हुए। कल हिगेल को पढ़ते इन पंक्तियों पर ठीठक गया, ‘व्यक्ति की संपूर्ण चेतना विचार में ही है। कलाकार की जिन मानसिक क्रियाओं में विचार की प्रक्रिया निहित होती है, वे ही कलात्मक संवेदन क्रियाएं अस्पष्ट रूप से उसकी चेतना में कार्यशील होती है। विचार प्रक्रिया के बगैर कलाकार किसी भी कला सर्जना को जन्म नहीं दे सकता।’
सच ही तो है। यह विचार प्रक्रिया ही है जिसमें कलाकार देखी हुई वास्तविक वस्तुओं की अपने तई नई सौन्दर्यसृष्टि करता है। छायाकारी में इसे गहरे से समझा जा सकता है। कैमरा जो दिखाई देता है, उसे ही तो पकड़ता है परन्तु बहुतेरी बार उसे परोटने वाला कलाकार भीतर की अपनी विचार प्रक्रिया से यथार्थ का जो कला रूपान्तरण करता है, उसमें देखे हुए के मायने बदल जाते हैं। यह जब लिख रहा हूं, छायाकार के.के अग्रवाल की छायाकृतियां जेहन में हलचल मचा रही है। अग्रवाल ने अपने होम गार्डन में अफ्रिकी पौधों, फूलों की बहुत सी प्रजातियों का संग्रह किया है। पौधों का उनका संग्रह तो खूबसूरत है ही परन्तु इनका जो उन्होंने छायांकन किया है, उसका लोक सर्वथा अनूठा है। छाया रूपान्तरण की उनकी सौन्दर्यदीठ में आकृतियों पर पड़ती रोशनाई में लहराती पत्तियों, फूलों की पंखुरियों, टहनियों, तने की वह तमाम बारीक संरचनाएं हैं, जिनमें पौधों की जीवंतता को अनुभूत किया जा सकता है। अफ्रिकी पौधों के उनके संसार के यथार्थ को भी बहुतेरी बार निहारा है परन्तु वास्तविकता से उनका छाया रूपान्तरण हर स्तर पर कहीं अधिक मोहक है। इस मायने में कि इसमें फूल, पत्तियों, टहनियों को देखने की अनंत संभावनाओं में उनके छायाकार मन ने जिया है। पौधों के यथार्थ के साथ सूरज की रोशनी है, शाम की लालिमा है और सोच की गत्यात्मकता का प्रवाह भी। मसलन एक पौधे की एक दूसरे से लिपटी टहनियां और धुंआ-धुंआ होती बारीक पत्तियों के गुुंफन के बाद ऊपर खिले फूल का रूपाकार। एक कंटिले पौधे से निकल रहे फूलों की लड़ियां और बहुत से पौधों के खिले फूलों की लय। पौधों के छाया रूपों में निहित अग्रवाल के अनुभव संवेदन में यंत्र रूपी कैमरा कला का माध्यम भर है, मूल बात उनके वह विचार हैं जिनके अंतर्गत यथार्थ का एक प्रकार से पुनराविष्कार किया गया है।
मुझे लगता है, अनुभव तो घटित का होता है परन्तु अनुभूति संवेदना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात करती है जो वास्तविकता में कृतिकार के साथ घटित नहीं हुआ है। बहुतेरी बार वही आत्मा के समक्ष ज्वलंत प्रकाश में आ जाता है और तब वह अनुभूति प्रत्यक्ष हो जाती है। अग्रवाल के छायांकन में यही हुआ है। उन्होंने पौधों को सहेजते लगोलग उनके सौन्दर्य का पान करते उनमें देखने की अनंत संभावनाओं को एक प्रकार से पकड़ा और कैमरे से उसका कला रूपान्तरण किया है। अनुभव से गहरी उनकी यह अनुभूति है। एक खास तरह की विजुअल सेंसेबिलिटी उनमें है। इसी से वह जो कुछ दिखाई देता है, उससे परे भी बहुत कुछ नया निकाल लेते हैं। पेड़, पौधों, उनकी टहनियां, लहराती पत्तियों को खास अंदाज में फोकस करते वह उनके कला रूपों पर गए हैं। उनमंे निहित अनंत संभावनाआंे को उभारा है और ऐसा करते छाया-प्रकाश के अंतर्गत समय संरचना को कैमरे की भाषा देते वह काल बोध भी कराते हैं। छायांकन में अनुभव और विचार प्रक्रिया का यही क्या कला रूपान्तरण नहीं है! आप ही बताईए।
"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 15-4-2011
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