Saturday, May 14, 2011

न्याय व्यवस्था की कलात्मक दीठ

संग्रहालय वह टाईम मषीन है जो हमें हमारी समृद्ध कला-संस्कृति के अतीत के गलियारों में ले जाती है। यह संग्रहालय ही तो हैं जो इतिहास का वर्तमान से नाता कराते हैं। वायसराय लार्ड कर्जन और पुरातत्व सर्वेक्षण के अध्यक्ष सर जॉन मार्षल ने पहले पहल हमारे यहां संग्रहालयों की नींव रखी थी। जब भी संग्रहालयों की स्थापना के निहित में जाता हूं, मुझे लगता है सांस्कृतिक उत्स के स्त्रोतों को जानने के उत्सुक अनुसंधानकर्ताओं की इतिहास से संबद्धता स्थापित करने की सोच ने ही संभवतः इन्हें मूर्त रूप दिया होगा। अतीत की हमारी जो शानदार चित्रकलाएं रही है, मूर्तिकला की जो समृद्ध परम्पराएं रही है, प्राचीन सिक्के, अस्त्र-षस्त्र, रहन-सहन, पहनावे की हमारी समृद्ध संस्कृति सहेजे यह संग्रहालय ही हैं जिनमें प्रवेष करते ही इन सबके जरिए गुजरा हुआ कल जैसे आंखों के सामने तैरने लगता है। घुम्मकड़ी के स्वभाव ने देष के भिन्न-भिन्न स्थानो के इतने संग्रहालय दिखाए हैं कि उन्हें याद कर लिखने बैठूं तो पता नहीं कितने पन्ने भर जाए।

बहरहाल, छायाकार मित्र महेष स्वामी ने कुछ दिन पहले जब जयपुर स्थित राजस्थान उच्चतम न्यायालय के कानून संग्रहालय और अभिलेखागार के बारे में बताया था तो खास कोई रूचि उसे देखने की नहीं जगी थी। शायद इसलिए कि काननू सदा ही मेरे लिए शुष्क विषय रहा है। औचक संयोग से किसी कारण से जब इस संग्रहालय को देखने का मौका मिला तो न देखने की चाह के सारे पूर्वाग्रह ही नहीं टूटे बल्कि इस बात का अफषोष भी हुआ कि अब तक इसे देख क्यो नहीं पाया। न्यायमूर्ति आर.एस. चौहान की कला संपन्न दृष्टि ने इसे मूर्त रूप दिया है। वेद, उपनिषद्, धर्मषास्त्र, के साथ ही मनुस्मृति में उल्लेखित न्याय की हमारी संस्कृति के अनछूए पहलुओं से साक्षात् करते इसकी सैर के अंतर्गत यह जानकर कम हैरत नहीं हुई कि जयपुर जैसी बड़ी रियासत की बजाय हाईकोर्ट की स्थापना पहले पहल धौलपुर रियासत में वहां के राजा रामसिंह ने 1903 में कर दी थी। तब यह महकमा खास या नरेन्द्र सभा कहा जाता था और रियासत में सुनवाई का वही उच्चतम स्थान होता था। धौलपुर रियासत के तब के उच्चतम न्यायालय के प्रतीक और चिन्ह के साथ ही संग्रहालय में कोटा, बूंदी, झालावाड़, जयपुर, टोंक, भरतपुर, अलवर, करौली के कलात्मक राज चिन्हों और उनमें निहित आदर्ष न्याय वाक्यों का यहां बेषकीमती संग्रह है तो राजा-महाराजाओं द्वारा रियासतों में कानून एवं न्याय व्यवस्था संबंधी जारी फरमानों, न्याय साहित्य से जुड़ी कलात्मक चीजें भी करीने से सहेज कर रखी गयी हैं।

मुझे लगता है, यह न्यायमूर्ति आर.एस. चौहान के गहन कला सरोकार ही हैं जिनसे यह संग्रहालय स्थापना रस्म की खानापूर्ति नहीं होकर कला की दृष्टि से इतना शानदार स्वरूप ले सका है। इससे बड़ी इसकी और क्या मिषाल होगी कि उनके प्रयासों से ही संग्रहालय में आजादी से पहले के वक्त मे न्यायालयों में शपथ हेतु प्रयोग ली जाने वाली कलात्मक गंगाजली को बाकायदा यहां सहेजा गया है। बाकायदा इसमें गंगा का तब का एकत्र पवित्र जल भी जस का तस रखा हुआ है। भारतीय संविधान की मूल प्रति यहां है तो औरंगजेब द्वारा षिवाजी को भेजा गया फरमान और आमेर के राजा रायसिंह को शाहजंहा द्वारा भेजा शाही फरमान भी इसकी धरोहर है। राजाषाही में न्याय प्रसंगों से संबद्ध चित्र, छायाचित्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। संग्रहालीय में प्रवेष करते ही वह शानदार स्कल्पचर अलग से आंखों में बस जाता है जिसमें स्तम्भ पर अलंकार रूप के ऊपर षिल्प धाम कोर्णाक के समय प्रतीक पहिये के ऊपर उड़ते सफेद शांति कपोत दर्षाये गए हैं। यह षिल्प जैसे हमसे कह रहा है, जहां न्याय है वहीं शांति की उड़ान है। कला की यही तो गहरी दीठ है। आप क्या कहेंगे!
चायचित्र : महेश स्वामी /13 may, 2011

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