Friday, May 27, 2011

कला का हमारा सौन्दर्यबोध

ललित कलाओं और उपयोगी तमाम कलाओं का आविष्कार मनुष्य ने अपने लिए नहीं बल्कि सबके लिए किया है। कोई सुगम संगीत में आनंद की खोज करता है, कोई शास्त्रीय संगीत में शब्दों के अमूर्तन में खोना चाहता है तो कोई नृत्य की भंगिमाओं का आस्वाद करते उसमें ही अपनी तलाष करने लगता है तो मुझ जैसा अंकिचन कैनवस पर समय के अवकाष की तलाष करते मूर्त-अमूर्त में दृष्य की अनंतताओं पर अनायास ही चला जाता है।

बहरहाल, विचारों के सघन जंगल की मीठी सुवास कहीं ढूंढनी हो तो आपको कलाओं के पास ही जाना होगा। आप जाईए, वहां आपको नवीनतम विचारों का उत्स मिलेगा। सधी हुई सोच का प्रवाह वहां है तो सौन्दर्य का अनूठा बोध वहां है। गौर करें, सुरों का आपको खास कोई ज्ञान नहीं है परन्तु संगीतसभा में बेसुरा कोई भी यदि होता है तो आप तत्काल पहचान लेते हैं। नृत्य में जरा भी भाव-भंगिमाएं, ताल बिगड़ती है तो आप पहचान लेते हैं। चित्रकला में जरा भी कुछ अनर्गल और भद्दा है तो आप उससे तुरंत विरक्त हो जाते हैं। जीवन की यही तो वह लय है, जिसे बिगड़ती देखते ही अंतर्मन अनुभूति त्वरित पकड़ लेती है।

यही तो है सौन्दर्य बोध। शास्त्रीय संगीत को सुनते हैं तो वहां क्या शब्दों की सहायता की जरूरत होती है! शब्दों के अमूर्तन में ही हम वहां भीतर का उजास पा लेते हैं। चित्रकला में सब कुछ सीधा-साधा और करीने से कोरा हुआ ही थोड़े ना होता है। वहां टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं, रंगों का छितरापन और ढुलमुलापन बल्कि बहुत से स्तरों पर आकृतियों का बिखराव, रेखाओं की टूटन में भी हम देखने के सुख को भीतर से अनुभूत कर लेते हैं। सर्जन के क्षणों में कलाकार नहीं जानता है कि वह क्या कर रहा है परन्तु श्रोता और दर्षक उसकी उस निर्वेयक्तिक बोद्धिकता को पहचान लेते हैं।

जब कभी प्रकृति के लैण्डस्केप देखता हूं, मुझे लगता है सच में प्रकृति के करीब आ गया हूं। घंटो लैण्डस्केप निहारते रहने का भी अनुभव कम नहीं रहा है और ऐसा करते बहुतेरी बार तो यह भी हुआ कि चित्र मुझसे जैसे संवाद करने लगा। मुझे लगता है, वहां मूर्त-अमूर्त का भेद ही नहीं है। हम जिसे अमूर्त कहते हैं, वास्तव में क्या वह है! अमूर्त माने जिसकी कोई मूरत नहीं हो परन्तु चित्र रूपाकार तो होता ही है। भले वह ऐसा हो जिसे सीधे सीधे व्याख्यायित नहीं किया जा सके। या यूं कहें कि किसी निष्चित प्रारूप में उसे परिभाषित नहीं किया जा सके परन्तु उसे देखकर मन में बहुत कुछ हलचल तो होती ही है बल्कि कईं बार यथार्थ के चित्रण में इसलिए मन रूचि नहीं ले पाता है कि वहां देखने को खास कुछ नहीं होता। जिससे हमारा नाता रहा है, जिसे प्रायः देखते रहे हैं उसकी छाया ही तो वहां होती है। वह चित्र नहीं प्रतिकृति है। कईं बार हम प्रकृति के विध्वंष को भी देखना चाहते हैं, अलग सौन्दर्य बोध मे। यह वह नहीं है जिसमें प्रकृति खिली-खिली हमें लुभाती है बल्कि वह है, जिसमें कला की दीठ है। तब प्रकृति का रूप बदल जाता है। असुन्दर और कुरूपता वहां होती है परन्तु देखने का सौन्दर्यबोध भी वहां होता है। कला में उसे अनुभूत कर हम कभी रोते हैं, कभी बेहद भावुक हो जाते हैं तो कभी यही असुन्दरपन हमें वर्तमान को नये सिरे से देखने की आंख देने लगता है। जो बीत गया है, उसके आलाप में भविष्य को बुनने लगते हैं। कला की यही विषेषता है, वह हमें नवीन सोच देती है। कला देखे हुए को, भोगे हुए को, अनुभूत किए हुए को उसकी सहजता के गुणों के साथ एक प्रकार से फिर से रचती है। यही सर्जन है। यही तो है भीतर का हमारा सौन्दर्यबोध।

4 comments:

रवि रतलामी said...

बढ़िया विवेचना

kala-waak.blogspot.in said...

आपने पढ़ा और लिखा... आभारी हूँ.
Regards.

Hetprakash vyas said...

Apke shabda bahut sukun dete hain. keep writting and provide us More sukun.

सहज साहित्य said...

ब्लॉग में छपने वाले सामान्य विषयों से हटकर कुछ बेहतर पढ़ने को मिला । आपका बहुत आभार । आगे भी इस तरह की पोस्ट का इन्तज़ार रहेगा ।