Friday, May 6, 2011

व्यष्टि नहीं समष्टि का पर्व

अन्तःसत्ता से संबद्ध व्यक्ति की आनन्दवृत्तिमूलक सर्जना ही हमारी तमाम कलाओं का हेतु है। बाहरी सौन्दर्य का महत्व ही वहां नहीं है बल्कि आंतरिक भावों का गहरा अंकन उनमें है। सच ही तो है! कलाओं का अर्थ कहना नहीं है, व्यंजित और ध्वनित होना है। समय के अनवरत प्रवाह की द्योतक यह भारतीय कलाएं ही हैं जिनमें व्यस्टि के स्थान पर समष्टि के भाव हैं। आस्थाओं, विष्वास से उपजी हमारी कलाएं दर्षिता विष्वरूपा है। लौकिक उत्सवों में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है।

बहरहाल, आज वैषाख शुक्ला तृतीया है। माने आखातीज। अक्षय तिथि। कलाओं की संपन्नता का, उत्सवधर्मिता का पर्व। कहते हैं, त्रेतायुग का आरंभ इसी तिथि को हुआ। इसी से यह युगादि तिथि मानी जाती है। अबूझ दिन। तीन प्रमुख अवतार नर-नारायण, परषुराम और हयग्रीव इसी दिन हुए। बद्रीनाथ के कपाट इसी दिन खुलते हैं तो वृन्दावन में श्री बिहारी जी के चरणों के दर्षन वर्ष में एक बार इसी दिन होते हैं। किसी भी कार्य को करने का अनपूछा मुहूर्त है आखातीज।

कलाओं के सर्जन का पर्व भी तो है यह आखातीज। अलंकृत घड़े, खड़ाऊ, छत्ते आदि दान करते यत्र-तत्र सर्वत्र लोग दिखाई देंगे। घड़े का, भांत-भांत की पंखियों का निर्माण-यह सब कलाओं का सर्जन ही तो है। अक्षयतृतीया पर लक्ष्मी सहित नारायण की पूजा का विधान है । वाणी जब सुसंस्कृत होती है, तब उसे सरस्वती का स्वरूप प्राप्त होता है परन्तु शब्दों को फटक-फटक कर भाषा का जब निर्माण हुआ तो लक्ष्मी ने ही वाणी को निधि समर्पित की। वाणी, निधि सभी प्रतीक हैं। गूढ, मनोगत अर्थों को प्रकट करते इन्हीं में तो रूप सादृष्य का अभिप्राय होता है। मनुष्य की रसिकता, मंगलकामना और आध्यात्मिकता को नवजीवन और पोषण देते प्रायः सभी उत्सवों में हम प्रतीकों का ही तो वरण करते हैं।

आखातीज पर प्रतीक रूप में पतंग उड़ाने का भी रिवाज है। जी हां, बीकानेर में कड़ी धूप, तेज चलती लू में भी घरों की छतें इस दिन आबाद होती है। पतंगे उड़ती है। स्थानीय भाषा में इन्हें किन्ना कहते हैं। वैषाख शुक्ला बीज, 1545 के शनिवार के दिन बीकानेर शहर की स्थापना हुई थी। स्थापना की उमंग में बीकानेर में उत्सव मनाया गया। घरों में खीचड़ा बना। घी भर इसे लोगों ने खाया और जीभर पिया ईमली का सर्बत। आखातीज पर राव बीका ने खुषी का ईजहार करते, आसमान में उड़ते मनों के प्रतीक रूप में बड़ा सा चिन्दा यानी बड़ी पतंग उड़ायी। बस तभी से परम्परा हो गयी। पूरे विष्व में शायद बीकानेर एक मात्र जगह है जहां तपते तावड़े में छत पर चढ़कर लोग पतंगे उड़ाते हैं। कागज पर कोरे चित्र, आकृतियों से सजी कलात्मक पतंगे। इन्हें उड़ाना भी अपने आप में कला है। आसमान में गोते खाती पतंगों के उड़ाके तगड़े लड़ाके होते हैं। दूसरे की पतंग काटने में मजबूत डोर नहीं बल्कि कला की दीठ वहां होती है। ऐसी जिसमें कलाबाजियों खिलाते पतंग को अनायास ढील या औचक कसते हुए काटने के गुर निहित जो होेते हैं।

...तो मन के उत्साह, उमंग की अभिव्यक्ति का पर्व है आखातीज। सच्ची कला यही तो है जिसमें अनायास मानव मन अपने अंतःकरण को प्रसन्न करने की जुगत कर बैठता है। व्यष्टि नहीं समष्टि की भावना के साथ। ऐसे ही जागृत होती है भीतर की हमारी उदात्त भावनाएं । यही तो है कला का सत्यं, षिवं और सुन्दरम्। आप क्या कहेंगे!

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