Friday, May 20, 2011

गीतों की भोर, रंगों की सांझ

ऐसे समय में जब देश  भर में महा कवि रवीन्द्र की 150 वीं जन्मषती के आयोजन हो रहे हैं, उनकी बनायी कलाकृतियों पर भी खास तौर से ध्यान जा रहा है। अचरज की बात है कि कविवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने उम्र के 67 वें वर्श के बाद चित्रकर्म की शुरुआत की। संयोग देखिए, कविता लिखते वक्त शब्दों  या पंक्तियों की तराश-खराश करते हुए उनके द्वारा यह शुरुआत हुई। फाउन्टेन पैन से वह कविताएं लिखते थे और इसी से वह चित्र निर्मिती की ओर भी प्रवृत हुए। शब्दों  को मिटाते, उन पर नया शब्द  रखते रेखाओं को मिलाने के उपक्रम में उन्हें लगा कि शब्द रेखाएं बहुत से दूसरे आकारों के लिए छटपटा रही है, उनमें बहुत से आकार छुपे हुए हैं। स्वयं सिद्ध आकारों के अनुभव के इस भव के अंतर्गत फाउन्टेन पैन ही फिर उनकी कूची बन गया। अकल्पित आकारों में दृष्य की अनंत संभावनाएं तलाषते पशु-पक्षियों और मनुश्यों की अनूठी आकृतियां का उन्होंने सृजन किया। जिस कविता ने उन्हें विष्व कवि के रूप में ख्यात किया, उसी से प्रसूत रेखाओं के आकारों ने उनके चित्रकार को भी अनायास जन्म दिया। यह चित्रकार रवीन्द्र ही हैं जिन्होंने पहले पहल कलाकृतियों में कपड़ो के टूकड़ों या फिर उंगलियों को स्याही में डुबोकर दो या तीन छटाओ में कलाकृतियों की सर्जना की।

बहरहाल, रेखाओं की मुक्ति के निमित कला की उनकी यात्रा प्रारंभ में कविता की अद्भुत लय है। रवीन्द्र एक स्थान पर कहते भी है, ‘मेरी चित्रकला की रेखाओं में मेरी कविता है जो अवचेतन की गहराईयो में डूबकर कागज में व्यक्त हुई है।’ पैरिस की गैलरी पिगाल में 1930 में उनके चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी  जब लगी तो महाकवि के चित्रकर्म पर भी औचक विष्व का ध्यान गया। बाद में लंदन, बर्लिन और न्यूयार्क में भी उनके चित्र प्रदर्षित हुए। यूनेस्को द्वारा आयोजित अन्तर्राश्ट्रीय आधुनिक कला प्रदर्शनी में भी उनके चार चित्र खास तौर से सम्मिलित किए गए।
रवीन्द्र के चित्रों की खास संरचना, उनमें निहित संवेदना और अंतर्मुखवृति ने सदा ही मुझे आकर्षित  किया है। याद पड़ता है, पहले पहल रवीन्द्र का बनाया जब ‘मां व बच्चा’ कलाकृति देखी तो लगा जीवन को कला की अद्भुत दीठ से व्याख्यायित करते उनके चित्र कला की अनूठी  दार्शनिक  अभिव्यंजना है। मसलन उन्हीं का बनाया एक बेहद सुन्दर चित्र है ‘सफेद धागे’। इसमें स्मृतियों का बिम्बों के जरिए अद्भुत स्पन्दन है। ‘थके हुए यात्री’, ‘स्त्री-पुरूश’ जैसे मानव चित्रो के साथ ही पक्षियों के उनके रेखांकन में एक खास तरह की एकांतिका तो है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं की सौन्दर्यसृश्टि भी है। सहजस्फूर्त रेखाओं के उजास में रवीन्द्र के कलाकर्म की रंगाकन पद्धति, सामग्री में निहित रेखाओं की आंतरिक प्रेरणा को सहज अनुभूत किया जा सकता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि उनकी कलाकृतियों में ठेठ भारतीयपन है। अंग्रेज जोड़े का चित्र भी उन्होंने बनाया है तो उसमें निहित सोच और रेखाओं की लय की देषजता अलग से देखने वाले का ध्यान खींचती है। नैसर्गिक भावनाओं के उद्गार उनके चित्र हैं, जिनमें जीवन की आंतरिक लय को सहज पहचाना जा सकता है। रंगों का उनका लोक भी तब सर्वथा नया था जिसमें कभी न मिटने वाली स्याहियां, चमड़ा रंगने में काम आने वाले बहुतेरे रंग, पानी और पोश्टर रंग, पेड़ों की पत्तियों और फूलों की पंखुड़ियों के रस के साथ ही पानी मंे घुलने वाले और दूसरे तमाम प्रकार के प्राकृतिक रंगों का उपयोग वह करते थे। कविता से चित्रकर्म की यात्रा पर हुए संवाद में कभी उन्होनें कहा था, ‘मेरे जीवन का प्रभात गीतों भरा था अब षाम रंगभरी हो जाए।’ सच भी यही है। यह रवीन्द्र ही है जिनके गीतों की भोर भीतर से हमें जगाती है तो चित्रों का उनका लोक सुरमयी सांझ में सदा ही सुहाता है। आप क्या कहेंगे!
20-5-2011

1 comment:

dd said...

geeton ki bhor...... very nice - D.D. Bikaner