Friday, June 10, 2011

घोड़े बेच सदा के लिए सो गए हुसैन

टीवी चैनल समाचार प्रसारित कर रहा है, हुसैन नहीं रहे। मैं चौंक पड़ता हूं।...सोचता हूं, हुसैन कैसे कहीं जा सकते हैं।...रेखाओं की अद्भुत गत्यात्मकता में शक्ति रूपक उनके घोड़े तो हमारे पास हैं। नहीं, उनकी रेखाएं, उनके रंग और जीवन जीने का ढंग कहीं नहीं यहीं है। यहीं। अभी कल ही तो अखिलेष का लिखा पढ़ रहा था, ‘हुसैन से मिलना पूरी एक सदी से मिलने जैसा है।’ मन ही मन इस लिखे में संषोधन हुआ था, ‘हुसैन के चित्रों से मिलना कला की पूरी एक सदी से मिलना है।

जन-मानस की सोच, लोक संस्कृति में विन्यस्त उनके रूपाकार युगीन संदर्भों की अनवरत श्रृंखला हमारे समक्ष रखते हैं। रेखाओं का जादूई सम्मोहन वहां है तो रंगों का अद्भुत उजास भी है। उनके रचे कैनवस में बिम्ब और प्रतीकों में बनते-बिगड़ते अक्षरों के एक नहीं अनेक अर्थ हैं तो रेखाओं का सम्मोहन संवेदनाओं के गहरे मर्म स्पर्ष कराता है।

बहरहाल, पंढ़रपुर गांव में हुसैन जन्में। इन्दौर में उनका बचपन बीता और एन.एस. ब्रेन्द्रे से कला की उन्हांेने प्रारंभिक षिक्षा प्राप्त की। साईकिल पर रात-बेरात लालटेन लिए घुमते आरंभ में उन्होंने खूब लैण्डस्केप बनाये। कविता, फिल्म से भी उनके सरोकार कम नहीं रहे। शमषेर बहादुर सिंह की कविता ‘पतझर’ पर बनाया उनका उनका चित्र जेहन में अभी भी कौंध रहा है तो स्वयं उनकी लिखी कविता पंक्तियां ‘मुझे आसमान की बर्फ ढकी चादर भेजो/जिस पर कोई दाग न हो/तुम्हारी अनन्त उदासी के घेरे को/मैं सफेल फूलों से कैसे चित्रित करूं?’ पंक्तियां आज भी मन में हलचल मचाती है। याद पड़ता है, अर्सा पहले उनसे मुम्बई में भेंट हुई थी। मुस्कुराते हुसैन ने जब जाना कि कला पर लिखता हूं तो कलाकृतियों की अपनी एक पुस्तिका मय हस्ताक्षर भेंट की। उनकी दी यह धरोहर सहेजे यह जब लिख रहा हूं तो डायरी के उन पन्नों को भी खंगाल रहा हूं जिनमें उनका बताया लिखा पड़ा झांक रहा है, ‘मैं जीवन को समग्रता में कैनवस पर उकेरता हूं। चाहता हूं कि अब कुछ ऐसा बने जो पहले कभी न बना हो। जो बने उसमें कुछ भी बंधन नहीं हो। कुछ ऐसा जिसे देखकर खुद चमत्कृत हो सकूं।’

सच ही तो है। उनका सर्जन बंधन रहित है। वहां कोई बनावट नहीं, सहजता का अपनापा है। भले वह उनकी बनायी मषहूर पेंटिंग ‘बिटविन स्पाईडर एंड लैंप’ हो या फिर अमेरिका के इराक पर हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप बनायी ‘द थीफ ऑफ बगदाद’ हो। फिल्मों का लगाव सदा उनके साथ रहा है। ‘गजगामिनी’, ‘मीनाक्षी: तीन शहरो की कहानी’ उन्होंने बनायी तो ‘हम आपके हैं कौन’ को 65 बार देखा। ‘थ्रू द आईज ऑफ ए पंेटर’ जब देखी तो लगा, फिल्म निर्माण की बारीकियों में जाते उन्होंने कला की गहराईयों को इसमें जिया है। बहुतों को यह जान हैरानी हो सकती है कि 1955 में आयोजित राष्ट्रीय कला प्रदर्षनी में ललित कला अकादेमी ने उन्हें जिस ‘जमीन’ पंेटिंग पर पहला राष्ट्रीय कला सम्मान दिया, वह विमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ से प्रेरित है। यह हुसैन ही हैं जिन्हांेने पहले पहल रामायण, महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों को आत्मसात करते इन पर पूरी की पूरी चित्र श्रृंखलाओं का निर्माण किया परन्तु अचरज इस बात का भी है कि बाद में यही हुसैन देवी-देवताओं के बनाए चित्रों पर ही विवादों के चर्म पर पहुंचे। कभी संस्कृति का इतिहास रचती ‘थ्योरामा’ श्रृंखला के अंतर्गत 12 फूट से लेकर 40 फूट तक की लम्बी पेंटिंग भी बना उन्होंने कला सर्जना का सर्वथा नया मुहावरा भी रचा।

बहरहाल, कैनवस पर उकेरे घोड़ों, उनमें निहित फोर्स और ऊर्जा से वह जब शौहरत की बुलन्दियों पर पहुंचे तो किसी ने उनसे सवाल किया, ‘आजकल क्या कर रहे हैं आप?’ मकबुल ने माकुल जवाब दिया, ‘घोड़े बेचकर सो रहा हूं।’ विश्वास नहीं हो रहा,...अब वह सदा के लिए ही सो गए हैं!

1 comment:

virendra sharma said...

सबसे पहले हुसैन साहब सुपुर्दे ख़ाक हुए हमारा विनम्र नमन इस कलाकार को .आपका आभार इतनीज्यादा हुसैन साहब को मूर्त करती रिपोर्टिंग के लिए ।
बंधन हीनता कलाकार की कई सन्दर्भों में राष्ट्र और समाज को माफिक नहीं आती .बेशक कलाकार जीवन मूल्यों में समाज से हटके होता है .लेकिन तुलना करते हुए उन्हें गांधी और बहादुर शाह ज़फर के समक्ष बिठलाने का काम इधर कई अखबारी ब्लोगिये कर गए हैं .बेहूदा तर्क जुटा कर उन्होंने बिहारी और विद्यापति को भी रास लीला में ला घसीटा है राधा कृष्ण के शब्द चित्रों में ,ऊपर से तुर्रा ये ,कहतें हैंयही लोग :अश्लीलता मन की होती है .वह दरबारी कवियों का मध्य युगीन सन्दर्भ था उसे २१ वीं शती पर मढ़ रहें हैं ये चिठ्ठा कश.और उसी सांस में कह रहें हैं इस्लाम में मोहम्मद साहब के चित्र बनाने की मनाही है ।कला भाव जगत का संसार है यहाँ तर्कों का क्या काम ?
खजुराहो ,कोर्ण-आर्क , या और किसी हिंदु मंदिर का अपना काल था ,तत्कालीन परिस्थितियाँ ,मूल्य बोध था .ये साहब माँ काली को भी उसमे लपेट रहें हैं ।माँ काली के नग्न चित्र परोस रहें हैं ये दृश्य रतिक.
भाई साहब आपकी समीक्षा कला कर्म से प्रेरित है ,संतुलित है ,आपकी दाद देतें हैं ,बाकी सब का हम सरयू घाट पे तर्पण करतें हैं ।
शुक्रिया आपका एक बार फिर .