Friday, June 3, 2011

शास्त्रीयता की लोक लय


कंठ में अद्भुत माधुर्य। सुनें तो मन न भरे। संगीत के सुर और उनके साथ हाथों और पावों की सहज थिरकन भी। शास्त्रीय संगीत की पारम्परिक रागों की लोक लय। जोग वस्त्रों में ढलती उम्र में भी गान के साथ यह नाच है। नृत्य नहीं परन्तु बंधे घुंघरूओं के साथ होले-होले उठते पांव। गति नहीं परन्तु संगीत और नृत्य का गत्यात्मक प्रवाह। एकटक स्क्रिन पर ही नजर टीकी है। छोटी सी कालीन और उसके चारों ओर सारंगी, तबला, हारमोनियम वादक और सहयोगी कलाकार। यह तमाषा है। कलाकार है गोपीकृष्ण भट्ट ‘गोपीजी’। रिकॉर्डिंग आज की नहीं है, 1988 की है। थोडे़ अंतराल में ही साजिन्दों के मध्य जोग वस्त्र पहने बैठे रंगकर्मी, संगीत-नाट्य कलाकार ईष्वरदत्त माथुर उठते हैं और गोपीजी के सुरों के साथ मिला देते हैं अपना सुर। जोगी-जोगन तमाषा में गुरू गोरखनाथ आख्यान परवान चढ़ने लगा है।...

पिछले दिनों पिंकसिटी प्रेस क्लब में लोक नाट्य तमाषा देखने का यह संयोग अनायास ही बना। गोपीजी के साथ बहुत से तमाषा में कलाकार के रूप में भाग लेने वाले ईष्वरदत्त माथुर ने एक अनूठी पहल की, उनकी कला के सम्मान की और जयपुर के तमाम कलाकार, रचनाधर्मी उनके साथ जुटते चले गए। उम्र की ढ़लान पर गोपीजी का अभिनंदन हो रहा था और वह भी शासन द्वारा नहीं, कलाकारों, सृजनधर्मियों द्वारा। मंच पर बच्चों की सी मासुमियत लिए गोपीकृष्ण भट्ट को देखते न जाने क्यों उस्ताद बिस्मिला खां की याद हो आई। वही सहजता। वही फक्कड़पन।

कला समालोचक विजय वर्मा ने तुर्रा कलंगी, खयाल और नाच की लोक परम्पराओं के साथ जयपुर तमाषा की बारीकियों में ले जाते जब यह कहा कि इसमें पंजाब के प्रेमाख्यान, वहां के परिवेष के साथ ही हिन्दुस्तान के बहुत से दूसरे अंचलों की लोक परम्पराओं की भी सुगन्ध है तो लगा यह लोक कलाएं ही हैं जिनमें जीवन की विविधता की सांगोपांग लय है। फिर जयपुर तमाषा तो ऐसा है जिसमें गंभीर शास्त्रीय गान में लोक की अनूठी लय है। गोरखनाथ और लोक में प्रचलित तमाम दूसरे आख्यानों की कथाएं वहां है परन्तु उनमें हंसी ठट्ठे को नहीं ढूंढा जा सकता। ईष्वरदत्त कहते हैं, ‘गोपीजी तमाषा करते वक्त एक ही समय में किसी लोक आख्यान को तमाम शास्त्रीय रागों में निभा सकते थे।’ तमाषा की उनकी रिकॉर्डिंग देखते इसे गहरे से अनुभूत भी किया।

मूलतः तमाषा महाराष्ट्र की नाट्य विधा है। जयपुर खयाल और ध्रुवपद की बारीकियां लिए इस कला को हमारे यहां पं. बंषीधर भट्ट और उस्ताद फूलजी भट्ट ने परवान चढ़ाया। गोपीजी ने इस परम्परा को निरंतर जीवंत रखा। लैला-मंजनू, जोगी-जोगन, उद्धव, हीर-रांझा जैसे कथानकों पर तमाषा निरंतर होता रहा है। भले गोपीजी के परिवार की नई पीढ़ी अभी भी इस परम्परा को सहेजे हुए है परन्तु लोक की इस विरासत को कब आधुनिकता की आंधी उड़ा ले जाएगी, कहा नहीं जा सकता।

बहरहाल, तमाषा लोक नाट्य की ऐसी परम्परा है जो शास्त्रीय संगीत की भिन्न-भिन्न रागों, नृत्य से प्रसूत अद्भुत लोक लय लिए है। यह ऐसी है जिसमें लोकसत्संग से प्राप्त बुद्धि का कलाकार अपने तई सांगीतिक अनुष्ठान करते हैं। इस अनुष्ठान में पुरखों के ज्ञान, उनकी परम्पराओं से व्यक्ति खुद को जोड़ता है। कहते हैं, अखाड़े में जब तमाषा किया जाता था तो बाकायदा उससे पहले कलाकार भभूत लगाते। कला की इस विधा में रचने-बसने के लिए। महज मनोरंजन ही नहीं बल्कि कला की अनूठी साधना के रूप में भी तब इसे देखा जाता रहा है। देवर्षि कलानाथ शास्त्री तमाषा का गहराई से विवेचन करते हैं। मैं उन्हें सुनता हूं और तमाषा, गुरू गोरखनाथ और जोगी-जोगन की याद मन में बसाए औचक लोक को वेदों से जोड़ने लगता हूं। आखिर दोनों ही प्रत्यक्ष ज्ञान से ही तो शक्ति अर्जित करते रहे हैं। मनुष्य को लोक-चेतस् दृष्टि देते। आप क्या कहेंगे!

No comments: