स्वरों पर अवलम्बित अद्भुत कला है संगीत। पूरी तरह से नियमबद्ध। सात शुद्ध और पांच विकृत स्वरांे को मिलाकर इसके कुल बारह स्वर हैं। बाईस श्रुतियों से निकले हैं ये स्वर। प्राचीन संगीत सिद्धान्त के अनुसार छः राग और छत्तीस रागिनियां हमारे यहां है परन्तु इनका अस्तित्व स्वरों पर ही निर्भर है। भले गायन हो या फिर वादन, स्वरों के प्रति समर्पण ही किसी कलाकार को अद्वितीय बनाता है। संगीत रत्नाकर की टीका में कल्लीनाथ मत्कोकिला को लोक में स्वरमंडल की संज्ञा देते हैं। स्वरमंडल माने स्वरों का साथ देने वाला। वीणा का उपयोग नारद स्वरमंडल रूप में ही शायद करते रहे हैं। यह सब सोचते ही ध्यान रूद्रवीणा पर जा रहा है। उस्ताद असद अली खां जेहन में कौंधने लगे हैं। कंधे पर रूद्रवीणा में श्रुति-दर-श्रुति आलाप, जोड़, झाले के बाद बंदिष पर जाते मन के तारों को झंकृत करते। सबसे बड़ी बात यह कि वह ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपनी तमाम उम्र रूद्रवीणा की साधना को ही समर्पित की।
रूद्र वीणा माने बीन। नारदकृत संगीत मकरंद में इसका विषेष उल्लेख है। सारिकाओं के मौलिक अंतर को छोड़ दें तो लगता है किन्नरी का ही परिष्कृत रूप कभी रूद्रवीणा रहा है। संगीतसार के अनुसार भगवान षिव को यह अत्यधिक प्रिय है। शायद इसीलिए इसे रूद्र वीणा कहा गया परन्तु पौराणिक ग्रंथ कहते हैं रूद्रवीणा में तमाम देवताओं का वास है। इसके दंड में षिवजी का, तांत में पार्वती का, कुकुभ में विष्णु, तुम्बों में ब्रह्माजी, नाभि में सरस्वती व मोरों में वासुकी नागराज का निवास है। सभी देवताओं से युक्त है यह। सर्वमंगला।
इसी सर्वमंगला के साधक असद अली खां के चिरमौन होने पर बीन की भारतीय परम्परा का ही जैसे लोप हो रहा है। पिछले पचास से भी अधिक सालों से लगातार कंधे पर रख रूद्रवीणा की विषुद्ध परम्परा को उन्होंने अपने तई ही संजोया। कहना अतिषयोक्तिपूर्ण न होगा कि उनके निधन के साथ ही धु्रपद और बीन की परम्परा के एक युग का अवसान हो गया है। उस युग का जिसमें कभी अकबर के दरबारी कलाकार मिश्रीसिंह तानसेन के धु्रपद गायन के साथ वीणा की संगत किया करते थे। बीन परम्परा के अतीत पर जाएं तो पाते हैं, जयपुर के बन्दे अली खां और रजब अली खां कभी मषहूर बीनकार रहे। रजब अली के षिष्य मुषर्रफ खां ने भी बीन को परवान चढ़ाया और बाद में उनके पुत्र सादिक अली खां ने बीन का पुराना बाज सुरक्षित रखा परन्तु जब उनका देहान्त हुआ तो लगा था कि बीन की समृद्ध परम्परा कहीं लुप्त न हो जाए। संयोग देखिए कि उनके पुत्र असद अली खां ने न केवल बीन की उस समृद्ध परम्परा को परवान चढ़ाया बल्कि रूद्रवीणा वादन जैसे कठिन साज को अपने तई सदा ही जिया।
असद अली खां सच्चे सुर साधक थे। ऐसे जिन्हांेने सदा ही इसे कंधे पर रखकर सुर सजाए, गोद में रखकर नहीं। शागीर्द भी उनके बहुत हुए परन्तु कोई सितार बजाता है, कोई सरोद...रूद्रवीणा जैसे कठिन वाद्य को किसी ने नहीं निभाया। कहते थे, ‘रूह सुर मांगती है-सच्चा सुर। आपका गाना-बजाना ऐसा हो कि पहला सुर लगते ही राह हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए और कहे कि लीजिए मैं हाजिर हूं।...आपका सुर असरदार है तो संगीत लुभाएगा।’
बहरहाल, ध्रुपद की चार बानियों में से एक है, खंडारबानी। कहते हैं राजस्थान के के योद्धाओ के धारदार शस्त्र ‘खांडे’ से ही कभी ध्रुपद की इस बानी का नामकरण हुआ। खांडे की ही तरह धारदार और शुद्ध। खंडारबानी के बीनकार असद अली खां की रूद्रवीणा भी धारदार, शुद्ध हर आम और खास के लिए असरदार थी। रागों के साथ ही उन पर लगने वाले स्वरों पर उनका गजब का अधिकार जो था। बहाउद्दीन के बाद नाद के शुद्धतर विष्व से साक्षात् कराती रूद्रवीणा का माधुर्य अब और कहां मिलेगा!
No comments:
Post a Comment