Friday, July 22, 2011

कला का अनूठा शब्द आस्वाद

मनीष पुष्कले मूलतः चित्रकार हैं परन्तु रचना प्रक्रिया को बयां करते वह अंतर्मन संवेदनाओं के अछूते, अनूठे लोक में ले जाते हैं। कला मर्मज्ञ मित्र पीयूष दईया ने कुछ समय पहले उनसे लम्बा संवाद किया था। उसकी परिणति ही है सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सफ़ेद स(ा)खी’। पिछले दिनों मनीष ने जब यह भेजी तो सुखद अचरज हुआ। हिन्दी में कला पुस्तकों की बंधी-बंधायी लीक को तोड़ती, गद्य की अद्भुत लय अवंेरती है यह। संवाद में भले पीयूष ने इसमें अपने शब्दों को मौन कर केवल मनीष के कहे को ही धरा है परन्तु सृजन की उनकी गहरी दीठ को मनीष की रचना प्रक्रिया को खंगालने में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है।

बहरहाल, कला में संवाद की प्रचलित अवधारणाओं के जड़त्व को तोड़ती पुस्तक मनीष के चित्रों, उनकी शैली के साथ ही कैनवस को परोटते रंग, रूपाकारों के व्यक्त, अव्यक्त का सर्वथा नया अर्थ विस्तार करती है। कला की शास्त्रीय अवधारणाओं से इतर मनीष का कैनवस चिन्तन वर्तमान संदर्भो के साथ ही अंतर्मन संवेदनाओं के बहुत से अनुभवों से संपृक्त होकर नई अर्थवत्ता लिये पुस्तक में हमारे सामने आता है। कला चिन्तन की समृद्ध परम्परा के साथ ही इतिहास, मिथक, आख्यान, किस्से-कहानियांे का सम्यक उपयोग करते मनीष ने पुस्तक के जरिये कला समझ की एक प्रकार से नई दीठ भी हमें दी है। इस दीठ में चित्रोद्भव की मनीष की तमाम संभावनाओं में कैनवस के निर्विकार सफेद की निर्गुणी स्मृतियां है। ‘रंग अदृश्य को ओढ़ने की चादर’ जैसी खूबसूरत अभिव्यंजना है तो गोगां की सकल चित्र-यात्रा में संश्लिष्ट रूपधर्मिता के एहसास की उनकी अलहदा अनुभूतियां भी है। मनीष इसमें नैन्सी हॉल्ट, रिचर्ड सेरां, लैग के साथ ही अनीष कपूर, डेमियन हर्स्ट, रोथको, रूसो, रोदां, मूर आदि की कला भाषा पर जाते हैं तो प्रभाकर कोलते, राजेन्द्र धवन नसरीन मोहमदी, रजा, जे.राम पटेल, अम्बादास, रामकुमार, गणेश हलोई के कला उत्स की बारीकियों से भी अनायास साक्षात्कार कराते हैं। स्वयं अपने चित्रों के बारे में वह कहते हैं, ‘मेरे चित्र होने के चित्र नहीं, न होने के चित्र हैं।’

गायतोण्डे से मनीष गहरे से प्रभावित रहे हैं। उनके पहले और अंतिम दर्शन, स्पर्श की अनुभूति की मनीष की अभिव्यंजना ‘सफ़ेद स(ा)खी’ में मर्म को गहरे से छूती है तो प्रियम्वदा और देवव्रत की कथा के जरिये वह अपने चित्रों की अनूठी साख भरते हैं। रेखाचित्रों पर उनका कहा जरा देखें, ‘...रेखा कागज के निरंजन सफेद को आविष्ट करती है, विचलित भी। यह सफेद को संहित करती है। और उसके असीम का अपने एक नन्हें से बिन्दु-रूप से सन्धान करती है। यही रेखा की विभूति है। मुझे रेखाचित्र इसीलिए भाता है कि यह सीधे-सीधे सफेद और काले का मेल है-मानो अपने विपर्याय की सन्धि।’ जल रंगों की उनकी व्याख्या भी अलग से लुभाती है, ‘जलरंग प्रभावी व अचूक है। जो चूके तो चित्र चातुर्य धरा रह जाय...जल-रंग शुरू से आखिर तक चैतन्य को एकाग्र रहने के लिए बाध्य करता है।..’ डेविड हॉकन, अज्ञेय, अशोक वाजपेयी, बर्वे, बावा, फ्रांसिस बेकन आदि के उद्धरणों से मनीष का कहन भी अलग से ध्यान खींचता है।

सच! ‘सफ़ेद स(ा)खी’ कला का अनूठा शब्द आस्वाद है। ऐसा कला वातायन भी जिससे छनकर आता है किसी कलाकार की अनुभूतियों, संवेदनाओं और विचारों का अनपेक्षित आलोक। मनीष के विचारों को शब्दों का गजब आकाश भी पीयूष ने इसमें बहुत से स्तरों पर दिया है। ऐसा करते वह कलाकार के मनोलोक के साथ ही स्वयं अपने चिन्तन में झांकने का स्पेस भी हमें देते हैं। हिन्दी में कला पर इस तरह की पुस्तक का आना एक नयी शुरूआत है। सुखद। इसलिये कि यह कला संवाद, चिन्तन और समझ के हमारे बहुत से पूर्वाग्रहों को तोड़ती है। अज्ञेय ने कभी अपने डायरी लेखन को ‘अंतः प्रक्रियाएं’ की संज्ञा दी थी। ‘सफ़ेद स(ा)खी’ पढ़ते अज्ञेय की यह संज्ञा गहरे से मन में घर करती है।

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