Friday, July 29, 2011

ध्रुपद के उस अद्भुत गान की विदाई...


उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर के गान की लयकारी और सांसों पर नियंत्रण की उनकी साधना सुनने वालों को अचरज कराती थी। उन्हें सुनना संगीत को गुनना है। यह जब लिख रहा हूं, मन गान में आरोह-अवरोह में सांसो के उतार-चढाव की उनकी अद्भुत लयकारी में ही जा रहा है। याद पड़ता है, जयपुर में धु्रपद समारोह में ही उनसे पहले पहल साक्षात् हुआ था। उन्हें सुना तो लगा उम्र को पीछे धकेलते वह सांगीतिक सौन्दर्य का अद्भुत रचाव करते हैं।

मुझे लगता है, यह उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर ही थे जिन्होंने धु्रपद की विरासत को न केवल सहेजा बल्कि उसकी बढ़त भी की। बढ़त माने विस्तार। आरोह में अवरोह और अवरोह में आरोह पर जाते वह सुनने वालों को चकित करते थे। नोम् तोम् की आलापकारी में प्रत्येक शब्द का उनका उच्चारण मन को उद्वेलित करता भीतर के खालीपन को जैसे भरता था। वह गाते थे लय बद्ध और नपा तुला। स्वरावलियों का अद्भुत अलंकरण वहां होता था। मन्द्रस्वर से मध्य और तार सप्तकों की खेंच में उनका गान परवान चढ़ता। याद पड़ता है, मन को झंकृत करता कभी उनके गाये राग सोहनी में नाद षिवभक्ति का रिकॉर्ड सुना था। शब्दों में स्वरों का उजास जैसे उन्होंने वहां रचा। उनका सुना और भी बहुत कुछ याद आ रहा है...चार ताल पर गत की उनकी बंदिषे। सच! यह डागर ही थे जिनका तीनों सप्तकों पर स्वर नियंत्रण का समान अधिकार था। स्वरावली को अलंकारित करते वह गायकी की निरंतरता को गहरे से अनुभूत कराते थे। बहुतेरी बार गान में वह अवरोहात्मक को भी अनपेक्षित आरोहात्मक बना देते थे। गान का यह चरम आवेग ही उनकी गायकी की विषेषता थी। ढ़लती उम्र में भी अपनी कसी हुई, गमकयुक्त शानदार तान को वह साधे हुए थे।

बहरहाल, भरतमुनि के नाट्यषास्त्र में धुवा-गीत का वर्णन आता है। कहते हैं यही बाद में ध्रुपद से जाना जाने लगा। कहा यह भी जाता है कि मध्यकाल मंे ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने सन् 1486 से 1516 तक के अपने शासन काल में ध्रुपद गायन परम्परा को पहले पहल विकसित किया। उनके प्रयासों से धु्रपद संवरा और निखरा। अबुल फजल की ‘आईने अकबरी’ में लिखे को मानें तो राजा मानसिंह ने धु्रपद शैली का विस्तार खुद नहीं करके अपने दरबारी गायक नायक बख्शू, मझू, भानु आदि की सहायता लेकर किया। जो हो इस बात से तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता कि यह राजा मानसिंह तोमर ही थे जिन्होंने धु्रपद को बढ़ावा दिया।

अकबर के जमाने में स्वामी हरिदास के षिष्य तानसेन ने धु्रपद को परवान चढ़ाया। उनके समय में ही बानियों का विकास हुआ। बानियां अपने प्रतिष्ठाता के नाम और स्थान से जानी गयी। मसलन तानसेन गौड़ ब्राह्मण थे इसलिये उनकी शैली गौड़ी हुई। दिल्ली के निकट स्थित डागुर निवासी ब्रजचंद से डागर वाणी, खंडार निवासी राजा समोखन सिंह से खंडार वाणी और नोहर निवासी श्रीचंद राजपूत से नोहर वाणी। तानसेन रचित धु्रपद मंे आता भी है ,‘बानी चारों के भेद सुन लीजै गुनीजन तब पावै यह विद्यासार/राजा गुबरहार, फौजदार खंडार, डागुर दीवान, बकसी नौहार।’ गौड़हार यानी शांत रस, डागुर माने मधुर और करूण रस, खंडार का मतलब वीर रस और नौहार से आषय प्रबंधों में अद्भुत रस।

खैर...यह पुरानी बातें हैं। अब तो धु्रपद के नये-नये और भी घराने विकसित हो गये हैं। राजस्थान मंे डागर घराने का आरंभ से ही बोलबाला रहा है। इमाम खां के पुत्र बाबा बहराम खां इस घराने के जन्मदाता माने जाते हैं। उनकी धु्रपद परम्परा को ही उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन डागर ने न केवल संजोया बल्कि अपने तई निरंतर उसका विस्तार भी किया। वह नहीं है परन्तु ध्रुपद के उनके अद्भुत गान को क्या कभी हम भुला पाएंगे!

No comments: