Friday, July 8, 2011

सिनेमा की कला दीठ


तमाम कलाओं का हेतु संवेदना है। चित्रकला, काव्य, नृत्य, नाट्य और संगीत के साथ ही सिनेमा को आपस में जोड़ने का कार्य संवेदना ही करती है। मणी कौल ने तमाम अपनी फिल्मांे मंे यही किया है। कैमरे के जरिये दृष्य संवेदनाओं और अनुभूतियों का वह जो अनंत आकाष रचते रहे हैं, उनमें तमाम भारतीय कलाओं का सम्मिलन देखा जा सकता है। सिनेमा में स्थापत्य, संगीत, चित्रकला और भावों की बारीकियों में जाते उन्होंने चाक्षुष सौन्दर्य का सर्वथा नया मुहावरा हमारे समक्ष रखा है।

बहरहाल, पहले पहल बिज्जी की लोककथा आधारित कहानी ‘दुविधा’ के जरिये उनके सिनेमाई नजरिये से रू-ब-रू हुआ तो दृष्यों की गति की उनकी दीठ को लेकर बेहद खीझ भी हुई थी। संयोग देखिये! इसी फिल्म को जब दुबारा देखा तो लगा, चाक्षुष के अंतर्गत कहन की तमाम संभावनाओं को मणी कौल जिस षिद्दत से संयोजित करते हैं, वैसा पहले कभी अनुभूत ही नहीं किया। मसलन मौन दृष्य में अचानक ध्वनि उभरती है और तमाम खालीपन को भर देती है तो कहीं षिल्प, स्थापत्य में समय के अवकाष को पकड दिक्-काल के भेद को समाप्त किया जा रहा है। दूर तक भूखंड...दृष्य अनंतता। कैमरा बस मूव कर रहा है, औचक किसी पात्र की भंगिमा कहानी को आगे बढ़ा देती है। दृष्य कहन की यह बारिकी ही उनके सिनेमा संवेदना का मूल रही है।

‘दुविधा’ को ही लीजिए। दृष्य संवेदनाओं का अनंत आकाष वहां है। पात्र हैं और मौन में भी वह अपनी भूमिका निभा रहे है। कुछेक देर के लिए होंठ खुलते हैं फिर कैमरा किसी दृष्य पर केन्द्रित हो जाता है। दृष्यों, भंगिमाओं के जरिये संवेदनाओं को उभारता कैमरा कहानी को आगे बढ़ाता है...खाली दीवारें, उनकी छाया, पूते हुए रंग, पेड़ और उसकी परछाई में ही आप राजस्थान को, यहां की बनियावृत्ति को और राजा-महाराजाओं की संस्कृति को अनायास गहरे से अनुभूत कर लेते हैं। बिज्जी की ‘दुविधा’ पर अमोल पालेकर ने बाद में शाहरूख खान को लेकर ‘पहेली’ भी बनायी। ताम-झाम के बावजूद ‘पहेली’ नाटकीयता की अति में अंतर्मन संवेदनाओं को कहीं से जगाती नहीं लगती जबकि मणी कौल की ‘दुविधा’ में स्त्री की पीड़ा, उसके सौन्दर्य की भयावह परिणति और अर्थ लोलुपता की मार्मिक अभिव्यंजना मंे तिरोहित होते मूल्यों को दर्षक गहरे से अनुभूत कर लेता है। सांकेतिक दृष्य और बिम्ब का ऐसा रचाव ही मणी कौल की फिल्मों की विषेषता रही है। ठुमरी गायिका सिद्धेष्वरी देवी पर बनायी डाक्यूमेंट्री ‘सिद्धेष्वरी’ में उन्होंने श्रृव्य का गजब दृष्य रूपान्तरण किया तो  मोहन राकेष के नाटक ‘असाढ का एक दिन’ पर इसी शीर्षक से बनायी उनकी फिल्म में भी दृष्य संयोजन की प्रयोगधर्मिता का जो ताना-बाना है, उसे कभी बिसराया नहीं जा सकता।

चाक्षुष संदर्भों की भरमार में दृष्यों को संयोजित करते कौल कहन की तमाम संभावनाओं को कैमरे के जरिए इस खूबसूरती से संप्रेषित करते रहे हैं कि देखने के बाद भी आप उसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाते हैं। ‘इडियट’, ‘सतह से उठता आदमी’, ‘ध्रुपद’, ‘नौकर की कमीज’, ‘ए मंकीज रेनकोट’ जैसी फिल्मों में उनका कैमरा गैर संवेगात्मक दृष्यों में मूव करता तमाम दूसरी कलाओं के अव्यक्त से भी साक्षात् कराता है। यह जताते कि तमाम कलाओ की आवाजाही के रूप विधान के बावजूद सिनेमा अद्वितीय विधा है।

बहरहाल, मोबाईल पर  पीयूष दईया ने जब मणी कौल के नहीं रहने की सूचना दी तो मन उनकी देखी फिल्मों में जाने के साथ ही हिन्दी सिनेमा के सामाजिक प्रभावों के अध्येता और जर्मन विद्वान डॉ. लोठार लुत्से के कहे उस कथन पर भी औचक चला गया जिसमें कभी उन्होंने हिन्दी सिनेमा को पांचवे वेद की संज्ञा दी थी। उनके कहे से गुरेज न करें तो क्या मणी कौल का जाना पंचम वेद के एक प्रमुख आधार स्तम्भ का जाना ही नहीं है!

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