Friday, July 15, 2011

अभिनय शास्त्र में भाव लिपियों की सर्जना


संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकला आदि तमाम भारतीय कलाओं में सृष्टि का अनुकरण है। वहां सृष्टि के संदर्भ में विषेष दृष्टि है। कलाओं का तमाम हेतु यह विषिष्ट दृष्टि ही तो आखिर है। कभी ब्रांकुषी ने कहा था, ‘भारतीय कला संयम से निकलती है। वहां धारा का आवेग और तटों का सयंम है।’ सच भी यही है। कठिन होने के बावजूद यह प्रक्रिया हमारी कलाआंे में साध्य होती है। नाट्य को ही लीजिये। विषालता का वहां कोई छोर नहीं है। नाट्य के तीनों ही उपादानों वस्तु, पात्र और रस में नव उन्मेष की अनंत संभावनाएं हैं। हम नाटक देखते हैं तो आनंद, रूप रस और विराट का अवर्णनीय अनुभव ही तो होता है। कालिदास ने इसीलिए कहा भी कि भिन्न रूचि वाले लोगों के लिये नाट्य अनूठा समराधन है। माने जरूरी नहीं है कि आपमें नाट्य कौषल हो, जरूरी नहीं है कि आपमें नाट्यानुराग है, जरूरी नहीं है कि नाटक की आपको पूरी समझ हो फिर भी नाट्य का रस आप प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये कि वहां उदात्तता है। देष, काल और अन्विति पर वहां बल जो नहीं है। यह जब लिख रहा हूं भरत मुनि की याद औचक ही जहन में कौंध रही है। नाट्य शास्त्र की बात हो और उनका स्मरण न हो यह हो भी कैसे सकता है! भरतमुनि रचित नाट्य शास्त्र एक व्यक्ति का नहीं, पीढ़ियों के संचित अनुभव, चिंतन और ज्ञान को समाहित किये हुए है। इसमंे नाट्य की उत्पति की मिथक कथा में सृष्टा स्वंय ब्रह्मा कहते हैं, ‘नाट्यवेद में कहीं धर्म है, कहीं अर्थ है, कहीं क्रिडा, कहीं शाति अथवा श्रम, कहीं हंसी, कहीं युद्ध, कहीं काम और कहीं वध का अनुकरण है।...न कोई ऐसा ज्ञान है, न षिल्प है, न विद्या है, न कोई ऐसी कला है, न योग है और न ही कोई कार्य ही है, जो इस नाट्य में न प्रदर्षित किया जाता हो।’ सोचिए! रंगकर्म से समाज को संस्कारित करने की ऐस अपेक्षा क्या कहीं और किसी कला में मिल सकती है!

मुझे लगता है, यह नाट्य शास्त्र के रचियता भरतमुनि की उदात्त दीठ ही है जिसमें नाट्यकर्म मनोरंजन मात्र नहीं होकर संस्कार की एक अनूठी कला के रूप मंे हमारे समक्ष है।

बहरहाल, भरतमुनि के नाट्यषास्त्र की आलोचनात्मक विवेचना तो बहुत से स्तरों पर हुई है परन्तु कला समीक्षक और रंगकर्म से गहरे से जुड़े मित्र गौतम चटर्जी ने नाट्यषास्त्र के देषकाल की खोज कर इधर अनुठा शोध कार्य किया है। बनारस से पिछले दिनों जब वह जयपुर आये तो निवास पर भी आये। रंगकर्म भी खुब बतियाये भी। कहने लगे, भरतमुनि का ईसा पूर्व 463 में काषी मंे जन्म हुआ और वहीं उन्होंने नाट्यषास्त्र की रचना की थी। संगीत विमर्ष की तर्ज पर गौतम चटर्जी इधर अभिनय शास्त्र की भी रचना कर रहे हैं। नाट्य शास्त्र को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में कैसे इस्तेमाल किया जाये, इसे ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने इससे 36 अभिनय सूत्र निकाले हैं। संगीत में जिस प्रकार स्वरलिपियां है, उसी तरह अभिनय के लिये भी वह भाव लिपियों के सर्जन का कार्य कर रहे हैं। विज्ञान और भाव प्रवणता के साथ गायन, नृत्य को जोड़ते वह अभिनय शास्त्र का जो नया आयाम बना रहे हैं, उसमें स्वयं उनके अनुभवों का विराट भव है। वहां अभिनय की बारीकियों के साथ ही परम्परा और आधुनिकता का सांगोपांग मेल भी है। अभिनय शास्त्र के अंतर्गत भाव लिपियों के आविष्कार का उनका यह कार्य रंग विचार को नया आलोक तो देगा ही, रंगकर्म की बुनियादी उलझनों के सुलझाव का भी मार्ग प्रषस्त करेगा। मुझे लगता है, रंग परम्परा का एक अनिवार्य संदर्भ भी इससे हमे मिल सकेगा। आप क्या कहेंगे!


No comments: