Friday, August 12, 2011

समकालीन रंगकर्म में नाट्यशास्त्र


पौराणिक काल से ही हमारे यहां नाट्यवृत्ति अनुष्ठानमूलक नृत्य, गायन, कार्यकलाप के रूप में जीवन से अभिन्न जुड़ी रही है। विष्णुधर्माेत्तर पुराण को ही लें। इसके तीसरे खंड के नृत्तसूत्र अध्याय में नृत्यकला, रस और भावानुभवों के साथ ही ललित कलाओं के परस्पर अर्न्तसंबंधों का सांगोपांग विवेचन है। वेदव्यास रचित महाभारत में सूत और मागध, नृत्य और नाटक का उल्लेख है। हरिवंषपुराण में रामायण के नाट्यान्तर की, भागवत और मार्कण्डेय पुराणों में नट, नर्तक का, पांतजल महाभाष्य में कंसवध और बलिबंधन नाटकों का और भरतमुनि के नाट्यषास्त्र की नाट्योत्पति कथा में देवासुर संग्राम, अमृत मंथन नाटकों पर जाएं तो नाट्य विधा की हमारी समृद्धता का सहज ही अनुमान लग जाता है।

यह नाट्यवृत्ति ही है जिसमें देष-काल का कोई बंधन नहीं है। वहां धरती-आकाष-पाताल, भुत-भविष्यत्-वर्तमान सहज अनायास सिमट आते हैं। कभी लोकानुरंजन का मूल नाट्य की हमारी यह शास्त्रीय परम्परा ही थी। लोग प्रेक्षागृह में नाटक देखने जाया करते थे। पारसी रंगमंच के साथ ही अधुनातन सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के दौर पर जाता हूं तो पाता हूं सेटेलाईट चैनलों के धारावाहिकों में भी तो आखिर नाट्य की हमारी पारम्परिक वृत्ति ही तो है। माने नाटक जारी आहे!

बहरहाल, नाट्यकला पर लिखा भी निरन्तर गया है। भले परम्परा के जड़त्व ने नाट्य समीक्षा को पूर्ण विकसित नहीं होने दिया है परन्तु नाटक की समकालीनता को हमसे तिरोहित भी नहीं होने दिया है। कुछ दिन पहले संगीता गुन्देचा ने अपनी सद्य प्रकाषित कृति ‘समकालीन रंगकर्म में नाट्यषास्त्र की उपस्थिति’ भेजी। अकादमिक शीर्षक देखकर चौंका। लगा, नाट्य के उद्भव, विकास पर ही इसमंे पहले जो पढ़ा वही लिखा होगा परन्तु पाठकीय आस्वाद सुखद था।

संगीता गुन्देचा के चिन्तन का लोक बहुत से आयाम लिये पाठकों से संवाद करता है। पारम्परिक नाट्य आलोचना के स्थान पर संगीता स्मृतियों के वातायन में नाट्य की भारतीय परम्परा, उसके शास्त्र के साथ ही लोक में प्रचलित धारणाओं का अपने तई पुनराविष्कार करती है। इसमें वह स्वयं के अनुभवों के साथ ही तेजी ग्रोवर की कविता, मणीकौल के सिनेमा, कवि उदयन वाजपेयी के संवाद, रतन थियम के नाट्यषास्त्र चिन्तन, हबीब तनवीर के नाट्यकौषल, कावलम नारायण पणिक्कर की निर्देषकीय दीठ की साक्षी भी अनायास देती है। रंग सामग्री की ‘आहार्य प्रदर्षनी’ के आस्वाद के साथ ही यात्राओं की अपनी स्मृतियों को भी वह परम्परा और शास्त्र से जोड़ती समकालीन रंगकर्म की व्याख्या का अपने तई नया मुहावरा गढ़ती है।

रंगकर्म पर चिन्तन का उनका यह पाठ सहज लुभाता बहुत से स्तरों पर नवीनतम जानकारियों से भी पाठक को लबरेज करता है। मसलन कालिदास के मालविकाग्निमित्र को वह फईमुद्दीन डागर के संगीत विस्तार और उसूल, फिल्मकार मणीकौल के चिन्तन की समकालिनता से जोड़ती है। भरतमुनि के सूत्रों पर विचारते वह श्रीकान्त वर्मा को याद करती है और रंगकर्म के संभावित उत्कर्ष और सूक्ष्मातिसूक्ष्म अभिव्यक्ति को अपने तई व्याख्यायित करती है। ‘मृच्छकटिकम्’ मंे विट जैसे बौद्धिक को उन्होंने इजरायल के भौतिक शास्त्री डेनियल अमिट की उस सोच से जोड़ा है जिसमें अमेरिकन फिजिकल सोसायटी की पत्रिका ‘फिजिकल रिव्यू इ’ के लिये मध्यपूर्व एषिया में अमेरिकी कार्यवाही के चलते उन्होंने एक पाण्डुलिपि की समीक्षा करने से इन्कार कर दिया था। ऐसे ही भासकृत ‘स्वप्नवासवदत्तम्’, कालिदास के ‘अभिज्ञानषाकुन्तलम्’ श्री हर्षकृत ‘रत्नावली’ की काव्य रूढ़ियों को संगीत की भिन्न रागों से जोड़ती संगीता लेखक के आत्म के परम्परा में घुलने का गहन विष्लेषण भी करती है। नाट्यषास्त्र की समकालीनता में वह केरल की पारम्परिक रंग नृत्य शैली ‘कुडियाट्टम्’ और संस्कृत नाटकों के विलक्षण मंगलाचरणों पर जाती उनकी विषेषताओं से हमारा साक्षात्कार कराती है। दरअसल संगीता के लिखे में नाट्य की समकालीनता का पाठ है, उसकी बोझिलता नहीं। शास्त्र है परन्तु उसकी जटिलता नहीं। षिल्प, संगीत और अभिनय की सूक्ष्मता है परन्तु कहन की सहजता भी है। रंग परम्परा पर लालित्य का अनूठा आस्वाद लिये है उनकी यह कृति।


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