Friday, August 26, 2011

नाचती-गाती रेखाओ में जीवन की लय


कंटिगेरी कृष्ण हेब्बार ने भारतीय संस्कृति और यहां के जीवन को अपनी कलाकृतियों में देषज आधुनिकता के साथ जीवंत किया है। यह उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। स्मृति से कलाकृतियों के उनके गलियारे में प्रवेष करता हूं तो पाता हूं, कैनवस पर उनकी रेखाएं अद्भुत लय अवंेरती सांगीतिक आस्वाद कराती है। संस्कृति और सभ्यता का वहां मधुर गान है। मानव मन से जुड़ी कथाएं हैं, व्यथाएं हैं तो उत्सवधर्मिता का उल्लास भी है।
यह हेब्बार ही हैं जो प्रकृति और रोजमर्रा के जीवन को पारम्परिक भारतीय चित्रकला शैली की लयबद्ध रेखाओं, रंगों के साथ ही यथार्थवाद और पाष्चात्य आधुनिक कला के सांगोपांग मेल से रूपायित करते रहे है। उनके चित्रों में रेखाओं के गतित्व और लय के साथ ही मानव शरीर के गहन अध्ययन का प्रभाव भी है।
स्वयं उन्होंने कभी गुरू सुन्दर प्रसाद से जो कथक सीखा था, उससे जुड़ी स्मृतियों और अनुभव संवेदनाओं का सांगोपांग रूपान्तरण भी वहां है। इसे उनकी नृत्य, संगीत के साथ ही मानव शरीर के गहन अध्ययन की परिणति ही कहें कि उनके चित्रों में बरते रंग और रेखाएं सहज सांगीतिक आस्वाद करती अनायास भारतीय संस्कृति के अपनापे से साक्षात् कराती है। तमाम उनकी चित्रकृतियों में सहजता है, जिस परिवेष में हम रहते हैं उससे जुड़े संदर्भ हैं और ऐसा करते वह अपनी कलाकृतियों में विषय के महत्व के अलावा सतह की बुनावट पर भी गये हैं और आवष्यकता अनुसार उन्होंने अपने चित्रों में घनवादी विभाजन भी किया है। मुझे लगता है, उनकी कला अभिव्यंजनावाद से भी अधिक यथार्थवाद के निकट है।
बहरहाल, के.के. हेब्बार के चित्रों में दृष्यों की जीवंतता है। कैनवस पर वह रेखाओं की बढ़त करते हुए दृष्य नहीं बल्कि उसमें निहित संवेदना की बारीकियों में जाते हैं। समय के अवकाष को पकड़ते हुए। मसलन ‘मछुआरों की बस्ती’ चित्र। इसमें उभरे दृष्य कोलाज संवेदनाओं का दृष्य-आस्वाद कराते हैं तो ‘मुर्गा युद्ध’ के उनके चित्र में उभरी रेखाओं की गति में पार्ष्व में उभरे व्यक्ति समूह और रंग संगति की आकर्षक योजना देखे हुए के अनुभव की जबरदस्त अभिव्यंजना है। ऐसे ही ‘जंगल’ चित्र का दृष्य आस्वाद चाह कर भी हम बिसरा नहीं सकते।
थोड़े स्पेस में मध्य में दो रेखाओं को परस्पर उभारते उन्होंने रेखा-तान में कुछ नहीं कहते हुए भी जंगल को समग्रता में रूपायित कर दिया है। भूरेपन के पार्ष्व में जंगल के हरेपन का अद्भुत रंग संयोजन। सहज रेखाओं में उभरते पेड़, हरियाली से वह चित्रकला का नया मुहावरा जैसे दे रहे हैं। ‘धान कुटाई’ चित्र में विषय के महत्व के अलावा वह जीवन से जुड़े तमाम संदर्भों मंे गये है। एक चित्र में पूरे जीवन की कथा जैसे कही गयी है। आकृतिमूलक इन चित्रों के साथ ही अमूर्तन के उनके जो चित्र हैं, उनमें भी रंगो के थक्कों, ज्यामीतिय संरचनाओं और अलग-अलग परतों के जरिये उन्होंने रेखाओं की लय का अद्भुत उजास दिया है।
बांग्लादेष की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का एक ऐसा ही खूबसूरत चित्र जेहन में कौंध रहा है जिसमें लाल, पीले, हरे, सफेद रंगों की हल्की, गहरी परतों में उन्होंने विषय को सांगोपांग रूपायित किया है। गहरी, हल्की रंग परतों के विभाजन में उन्होंने रेखाओं की गति में जन-मानस के स्वतंत्र प्रवाह को रूपायित किया है।
हेब्बार की कलाकृतियो से नयेपन की लीक को तोड़ती हमें ऐसे जीवनानुभव अनायास ही देती है जिनमे देखने की हमारी चेतना अतीत को खंगालती, परम्परा के बहाने वर्तमान को टटोलती है। इससे भी आगे वह भविष्य को देखने की नयी दीठ भी हमंे देती है। मूर्त-अमूर्त कला में वहां परम्परा का गहन अन्वेषण है तो आधुनिकता की दुरूहता की बजाय उसके सहज समय संदर्भ हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि भारतीय रंग और रूपाकार लिये हेब्बार की चित्रकृतियां मानव सभ्यता और संस्कृति का अनहद नाद है। यह जब लिख रहा हूं, नाचती-गाती उनकी रेखाओं में बरते उत्सवधर्मी रंगों में सूर्योदय के उनके विष्वप्रसिद्ध चित्र का आस्वाद कर रहा हूं। आप भी करें!

1 comment:

sarvesh bhatt said...

wah rajeshji dil khush ho gaya aapki nachti gaati kalam padhkar......sarvesh bhatt