Friday, August 5, 2011

सुनने वाला लोक, गुनने वाला लोक


भारतीय संगीत में उदात्ता है। पूर्ण-संपूर्ण राग-स्थायी, अंतरा, बोल, तान के शास्त्रबद्ध नियम वहां है परन्तु प्रस्तुति की अपार स्वतंत्रता भी। समयानुकूल रंजक तत्वों को अपने मंे समाहित करने की अपार शक्ति लिये है संगीत। कवि रवीन्द्र कहते हैं, ‘साहित्य का जहां अंत होता है, संगीत वहीं से प्रारंभ होता है।’ यह भारतीय संगीत ही है जिसमें गायक और वादक सीखे हुए को ही नहीं गाते-बजाते बल्कि स्वयं अपने तई भी मौलिकता रचते हैं। लम्बे समय तक सांगीतिक परम्पराएं जीवित भी शायद इसीलिए रह पायी है कि वे जन जीवन के सतत प्रवाह से जुड़ी है। वहां परम्परा है उसके बंधन नहीं।

संगीत पर लिखे की ही बात करें। अव्वल तो संगीत पर लिखा ही कम गया है। और जो लिखा है, वह इस कदर शास्त्रीय है कि बजाय जोड़ने के संगीत के श्रोता उसने तोड़े ही है। गायक, वादक अपने तई सीखे हुए की बढ़त करते हैं परन्तु लिखे की कौन करे!

जयपुर गायकी के पुरोधा उस्ताद अल्लादिया खां धु्रपद घराने के थे परन्तु साधा उन्होंने अपने को ख्याल में। धीमी आलापचारी में उनके गान में धु्रपद अंग स्पष्ट दिखाई देता था। उन्हें सुनें तो लगेगा, धु्रपद अंग की विषिष्ट गमक तथा टप्पा वहां है। टप्पा माने छोटी-छोटी तानों की मलिका। तन धातु से निकला है तान। वह जिससे राग का विस्तार हो। खयाल मंे यही होता है। सिद्धान्ततः धु्रपद मंे तान नहीं होती परन्तु गमक अंग से की गई चौगुन की लयकारी नोम् तोम् पर जब भी जाता हूं, न जाने क्यों बोलतान का आस्वाद होता है। श्रोता मन तो माधुर्य का पान करता है। शास्त्रीय निबद्धता गान का आधार हो सकती है, उसकी श्रेष्ठता और माधुर्य का पैमाना नहीं। भाव अभिव्यक्ति के लिये ही तो संगीत बना है। उसका शास्त्र तो बाद में बना है। शास्त्र के नियमों को ही महत्व देते उसे सुना जायेगा तो क्या भावाभिव्यक्ति की सहजता को हम मार नहीं देंगे!

बहरहाल, पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का कहा याद आ रहा है, ‘संगीत की षिक्षा से कोई तानसेन नहीं बन सकता, कानसेन जरूर बन सकता है।’ उनके इस कहे पर जाएं तो लगेगा संगीत सच मंे सागर है। वहां शब्दों के अर्थ निष्चित होने पर भी भिन्न-भिन्न प्रकार से गाकर नये नये अर्थ उत्पन्न किये जाते हैं। काव्य से जो व्यक्त नहीं होता, संगीत उसे व्यक्त करता है। ध्वनि की अपरिमित गमक वहां है। गमक माने वाग्। और स्पष्ट करें तो शब्दोच्चार। तराने को ही लें। ‘तन देरे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम्’ आदि निरर्थक   शब्दों का प्रयोग वहां होता है। क्यों? क्या पद नहीं है जो गान की यह गत हुई! ऐसा नहीं है। कहते हैं, अमीर खुसरो जब भारत आए तो संस्कृत देखकर घबराए। उन्होंने फिर निरर्थक शब्द गढ़कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही तराने हुए। तराना माने राग, ताल और लय। हमारे संगीत की यही विराटता है। चरैवेति, चरैवेति। यानी चलते रहें, चलते रहें। सबको समाहित करते हुए। यही जीवन है। जहां रूक गए, वहीं मरण है।

कोयल की कूक से मन में हूक उठती है। मयूर  का नृत्य दिल में हिलोरें जगाता है। निर्झर-निनाद में, भंवरों के गान में और वर्षा की रिम-झिम में संगीत का आस्वाद है। आखिर हृदय के सूक्ष्म भावों की भाषा ही तो है संगीत। माधुर्य इसकी सहजता है। यह कहीं नियमों से आबद्ध हो सकता है! धु्रपद को ही लें। नाट्य शास्त्र के रचययिता भरतमुनि ने अपने गं्रथ में धु्रवा गीतों का उल्लेख किया। उनके ध्रुवगान मंे ऋक, पाणिक और गाथाएं अपने सात रूप और अंगो के साथ सम्मिलित है। धु्रवागीत धु्रवपद हुआ और लोक में धु्रपद। यही बढ़त है। सुनने वाला लोक, गुनने वाला लोक। संगीत की शब्दावली अलग है। सुनने और अनुभव की अलग। उसे संगीत के शास्त्रों से निबद्ध करेंगे तो संगीत श्रोता नहीं जुटेंगे। लिखा यदि सुनने की संवेदनषीलता जगा सके तो इससे बड़ा और उसका हेतु क्या होगा! तानसेन नहीं हमें कानसेन बनाने हैं।


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