Friday, August 19, 2011

थिरकती देह में घुंघरूओं का गान

नृत्त, नृत्य और नाट्य का संयोग कहीं है तो वह कथक में है। नृत्त माने अभिनय रहित नर्तन। नृत्य यानी नाट्य के साथ नृत्त और नाट्य वह है जिसमें किसी निष्चित पात्र का उसके वेष-चाल-रंग-रूप और बोली की हू-ब-हू नकल की जाती है। कथक में देह की लयबद्ध थिरकन के साथ ही ताल के जटिल रूपों को पैरों में बंधे घूंघरू अभिव्यक्ति देते हैं।

बहरहाल, रवीन्द्र मंच पर अर्से बाद प्रेरणा श्रीमाली के कथक का आस्वाद करते यही सब जेहन में कौंध रहा है। कथक में वह बढ़त करती है। गुरू से सीखे में परम्परा को सहेजते हुए भी अपने तई नई-नई परनों और नये-नये टूकड़ों का अद्भुत रचाव करते। लय के दूसरे दर्जे में भी थिरकते पैरों के उनके घंूंघरू ताल को जैसे गहरे से जीते हैं। विलक्षण चमत्कार दिखाते। भावों के साथ लय की अद्भुत सूक्ष्मता वहां है।

भगवान षिव की स्तुति से होता है प्रेरणा के नृत्य का शुभारंभ। षिव के ताण्डव रूपों को साकार करते वह नृत्य की मोहक छटा बिखेरती है। नृत्य की सहजता वहां है परन्तु स्वयं की मौलिकता भी है। इस मौलिकता में लयकारियों को उनके पैरों में बंधे घुंघरूओं की खनक से बखूबी अनुभूत किया जा सकता है। तबले और सारंगी के साथ दाहिने और बांये पैर की एक सी बोल निकासी में ध्वनित हो रहा है ‘ता थेई थेई तत...आ थेई थेई तत’। चमत्कारिक पद संचालन। अंग-प्रत्यंग-उपांगो से भावों की प्रस्तुति में नृत्य रस की समग्रता। देह की थिरकन भर नहीं, भावों का कहन भी इस नृत्य में है। मैं नृत्य देख रहा हूं और अनुभूत करता रहा हूं कि यह कथक ही है जिसमें विलम्बित, मध्य तथा द्रुत लय में ततकार रूपी पद संचालन होता है।

औचक पं. राजाराम द्विवेदी का लिखा जेहन में कौंधने लगा है। ततकार का मूल वर्ण है त थ ई। इसे व्याख्यायित करें तो अर्थ आता है त से तन। थ से थल और ई से ईष्वर। यानी ईष्वर प्रदत्त तन द्वारा धरती पर जो भी कार्य हो वह उन्हें ही समर्पित हो। प्रेरणा अपने नृत्य में इसे जीवंत करती है। वह नृत्य करती है परन्तु अपनी इस साधना को ईष्वर को समर्पित करती उर में आनंद के भाव जगाती है। वहां ताल को सुना भर नहीं जा सकता बल्कि सहज देखा भी जा सकता है। नृत्य में पैर के उसके घूंघरू जैसे देखने वाले से संवाद करते हैं। एक तिहाई ताल पर पर पैरों का गान।

नृत्य की शास्त्रीयता में अचल, चल थाट को कुषलता से बरतती यह प्रेरणा ही है जो दर्षकों को अपनी प्रस्तुति से बांधती है। थाट के उपरान्त आमद। चक्रदार परन। चरम पर है नाच का रस। विभिन्न तोड़े-टुकड़े उठाती वह विलम्बित में छेड़छाड़ की गत की मोहक छटा भी औचक बिखेरती है। थाट बांधने के बाद आमद, टूकड़े, चक्रदार, परन् आदि नृत्त पक्ष में बढ़त। इस विस्तार में पैरों के स्पन्दन के अलावा भाव पक्ष की भी गहराई है। प्रेरणा की यही नृत्य मौलिकता है। इसमें परम्परा है परन्तु उसका जड़त्व नहीं। शास्त्रीयता है परन्तु उसकी दुरूहता नही है। सहज आनंदानुभूति कराता नृत्य। मसलन श्रृगार रस में गुरू की रची उनकी ठुमरी प्रस्तुति को ही लें। विलम्बित में वह नायिका की गत, बंदिष, तिहाईयां, कवित्त के अलावा तबले की गत में लड़ी को पिरोकर कलात्मकता का सर्वथा नया मुहावरा बनाती है। नृत्य के अंतर्गत हर अंग में यहां उपज है। कठिन तालों में घेरदार घुमाव है और है द्रुतगामी पदाघात।

ठुमरी में कथा नहीं होती। किसी एक क्षण की बात होती है। इस क्षण को ही तो नर्तक अपनी कला से जीवंत कर कथा की समग्रता का अहसास देखने वाले को कराता है। कहीं पढ़ा हुआ याद आने लगा है। कथा कहने वाले ही कभी कथक कहाया करते थे। पौराणिक कथाओं को कुछ गाकर और कुछ अभिनय द्वारा बताने वाले। धीरे-धीरे कथक का परिमार्जन हुआ। शास्त्रीयता में निबद्ध होते यह सम्पूर्ण भारतीय नृत्य हो गया। मुझे लगता है, प्रेरणा कथक की संपूर्णता को भीतर की अपनी कला से संवारती और अंवेरती है। तबले की गूंज पर थिरकती देह में पैरों में बंधे उसके घूंघरूओं की अमृत रस वर्षा का पान करते इसीलिये मन कहने लगा है, नमन प्रेरणा। नमन!

1 comment:

l k chhajer said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति है. कला जगत के लिएबहुत बड़ी उपलब्धि की बात है आपको साधुवाद .
लून करण छाजेड , बीकानेर
पत्रकार