Saturday, September 17, 2011

अंतर्मन संवेदनाओं के चित्राख्यान

सावित्री पाल की अंतर्मन संवेदनाओं को उनकी रेखाओं में गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। बारीक रेखाओं के अंतर्गत स्त्री-पुरूष की देह से लिपटे-फूलों, बेलपत्तियांे के बहाने वह जीवन की अपने तई कला व्याख्या करती है। तकनीक की दृष्टि से ही नहीं बल्कि संवेदनाओं के भव की दीठ से भी। स्त्री-पुरूष संबंधों, देह से जुड़े सवालों से उनकी कलाकृतियां जूझती लगती है तो ठीक इसके उलट बहुत से स्तरों पर उनका कलाकर्म निर्वाण के मौन की भी पुनर्व्याख्या करता प्रतीत होता है। कह सकते हैं दर्षन की गहराईयों में वह जो उकेरती रही है, उसमें जीवन का सांगोपांग चितराम है। भले वह जो बनाती हैं, वह आकृतिमूलक है परन्तु उसके अर्न्तनिहित अमूर्तन का वह कैनवस भी है जिसमें देखने वाले को विचार का सर्वथा नया आलोक भी मिलता है। मसलन बुद्ध से संबद्ध उनकी कलाकृतियों को ही लें। मौन बुद्ध की शांत आकृतियों को सावित्री पाल ने अपनी दीठ से विस्तार दिया है। निर्वाण का अर्थ जग से पलायन नहीं है, जग से भागना नहीं है बल्कि जगत को ज्ञान से दीक्षित करना है। बुद्ध ने यही तो किया था। ऐसे वक्त में जब तमाम समाज कर्मकाण्डों के जाल में उलझा हुआ था, यह बुद्ध ही तो थे जिन्होंने व्यक्ति को अपने भीतर झांकते हुए पूर्वाग्रहों से मुक्ति की राह दिखाई थी। कर्मकाण्डों से परे ऐसे धर्म पर चलने की राह सुझाई जिसमें व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता को बरकरार रखते हुए भीतर के अपने आलोक को बाहर ला सके।

सावित्री पाल की कला में बुद्ध के निर्वाण के साथ ही उनके इस दर्षन से गहरे से साक्षात् हुआ जा सकता है। उनके बुद्ध हमारी चेतना को जगाते हैं। बुद्ध का अर्थ भगवान बुद्ध ही थोड़े ना है, बुद्ध का अर्थ है ज्ञान जो हमारे भीतर है। रेखाओं के अद्भुत न्यास में सावित्री पाल के चित्रों के खुलते अर्थ गवाक्षों में भले ही स्त्री-पुरूष आकृतियों के कोलाज सरलतम रूप मंे हमारे समक्ष आते हैं परन्तु उनमें निहित बुद्धत्व के भाव अलग से ध्यान खींचते है।

स्त्री-पुरूष संबंधों और उनकी अंतर्मन संवेदनाओं को रेखाओं के रूपाकार में वह देखने वाले की दृष्टि और उसके अनुभवों का विस्तार करती है। मुुझे लगता है, आपाधापी मंे तेजी से छूटते जीवन मूल्यों, भावनाओं के ज्वार और देह के भुगोल में सिमटते जा रहे रिष्तों की उनकी कलाकृतियां एक तरह से गवाही देती है। जो जीवन हम जी रहे हैं, उसके द्वन्दों को सावित्री पाल की कला गहरे से रेखाओं में व्याख्यायित करती है। प्रतिदिन के जीवन से रू-ब-रू होने के बावजूद हम कहां उसको समझ पाते हैं। बहुतेरी बार जब तक समझते हैं, तब तक अनुभूति बदल जाती है। जीवन में जो कुछ छूट जाता है, उस छूटे हुए को सुक्ष्म संवेदना, दृष्टि में सावित्री पाल अपने चित्रों में जताती हुई भी लगती है। सहज, सरल मानवाकृतियों के साथ ही पार्ष्व के परिवेष, बेल-बूटे, लताओं, फूलों और तमाम चित्र के दूसरे परिदृष्य में उनका कलाकर्म आमंत्रित करता है, बहुतेरी बार देखने वाले पर हावी होता है, कुछ कहने के लिए मजबूर करता हुआ।

ब्हरहाल, सावित्री पाल के चित्र संवेदना के जरिए गतिमान होते हैं। उनमें भावों की लय है। वहां उत्सवधर्मिता, विषाद, हर्ष की अनुभुतियां भी है तो आकृतिमूलक कला का वह माहौल भी है जिसमें अनुभव और मन के भावों से बनती नारी-पुरूष देह यष्टि के हाव-भाव आपको भीतर से झकझोरते हैं, कुछ सोचने को विवष करते हुए। परम्परा का निर्वहन तो वहां है परन्तु आधुनिकता की वह संवेदनषीलता भी है, जिसमें उभरे प्रतीक, बिम्ब देखने वाले से संवाद करते हैं।

कांट का कहा याद आ रहा है ‘प्रकृति सुन्दर है क्योंकि वह कलाकृति जैसी दिखती है और कलाकृति को तभी सुदंर माना जा सकता है जब उसका कलाकृति जैसा बोध होते हुए वह प्रकृति जैसी प्रतीत होती है।’ स्त्री-पुरूष से ही तो यह प्रकृति है। सोचिए! प्रकृति की लय यदि गायब हो जाय तो क्या फिर हम सौन्दर्य का आस्वाद कर सकते हैं!

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