Friday, September 9, 2011

रेखाओं और रंगो का काव्य कहन


यह जून 2010 की बात है। जहांगीर सबावाला ने तब नया विष्व रिकॉर्ड बनाया था। उनकी एक कलाकृति ‘द कसअरीना लाइन आई’ सैफ्रोनार्ट की ऑनलाइन नीलामी में 1.7 करोड़ में बिकी थी। अखबारों की सुर्खियों में औचक वह छा गये थे परन्तु पिछले शुक्रवार को जब इस कलाकार का देहान्त हुआ तो समाचार जगत मौन था। मन में विचार कौंधा, कला और कलाकार की समाचार गत क्या यही है?

बहरहाल, जहांगीर सबावाला अपनी धुन के ऐसे कलाकार थे जो कैनवस पर ही बोलते थे। असल जीवन में एकान्तिक। एकाधिक बार संवाद हुआ तो अपने बारे में बताने से भी बचते ही रहे। लगातार उन्होंने काम किया और कुछ समय तक प्रभाव वाद, घनवाद के करीब रहने के बावजूद भारतीय परिवेष, रंग और सोच से उन्होंने अपने तई कला की नयी भाषा भी रची। यह ऐसी थी जिसमें पिकासो की कला शास्त्रीयता को आगे बढ़ाते भारतीय दृष्टि के अंतर्गत जीवन से परे स्वर्गिक सौन्दर्य सृष्टि के चितराम उन्हांेने उकेरे। पूर्व-पष्चिम के मेल की कला शैली। भारतीय दर्षन में पष्चिम की दृष्टि। उनके लैण्डस्केप और मानवाकृतियां इसी की संवाहक है। सौन्दर्य की तमाम संभावनाओं का उजास वहां है। नदी, समुद्र, पक्षी, आकाष, भोर, सांझ के कैनवस पर उभरते उनके दृष्य परत दर परत घुले रंगों में देखने के हमारे ढंग को भी जैसे नयी दीठ देते हैं।

सबावाला के प्रकृति चित्र सांगीतिक आस्वाद कराते हैं। दृष्यों में वहां समय का मधुर गान है। लैण्डस्केप में उभरी भोर की लाली, दोपहर, सांझ और धूप की परछाई समय की गति को ध्वनित करती हमें ‘अरे! यह सूर्योदय, यह सांझ!’ जैसा ही कुछ कहने के लिये उकसाती है। दैनिन्दिन जो दिखता है, वैसा ही परन्तु दृष्य रूपान्तरण में अलग मोहकता। वायवीयता। भारतीय रंग और परिवेष परन्तु पष्चिम से सीखी कला की शास्त्रीयता। आकृतियों जैसे वातावरण में घुल रही है। देखने का हमारा अनुभव बदल जाता है। मुझे लगता है, उनकी प्रकृति दृष्यावलियां मैंटल लैण्डस्केप हैं। दृष्यों के मनःदृष्य।

याद पड़ता है, संवाद में एक बार उन्होंने कहा था, ‘चित्र बनाने से पहले मैं अपनी डायरियंा टटोलता हूं। मैं प्रकृति, चीजों को देखकर नोट लेता हूं। देखे हुए अनुभवों के साथ ही सुबह, दोपहर, सांझ के रंगों की डिटेल भी कईं बार लिख लेता हूं। बाद में कैनवस पर काम करता हूं तो यह सब काम आता है।’ सच ही तो कहा था सबावाला ने। वह जब कुछ बनाते तो दृष्य मन के उनके सौन्दर्य का संवाहक बन जाते। ऐसा लगता है, रंग और रेखाओं के साथ बहती हवा को भी वह जैसे घोल देते। हवा का संगीत भू दृष्यों पर, आकृतियांे पर तैरता है। अजीब सा सुकून देता हुआ। परत दर परत घुले हुए रंग। जल, थल और नभ के अनगिनत बिम्ब। वहां पक्षी है, रात है, सांझ की लालिमा है परन्तु यह सब हमारे पृथ्वीलोक के नहीं होकर किसी ओर लोक के लगते हैं। यह दृष्य की काव्य भाषा है। फंतासी। परिचित वस्तुओं, मानवाकृतियों का अपनी दीठ से वह अद्भुत रंग संयोजन कर दृष्यांकन का जैसे नया मुहावरा बनाते। शरीरचना शास्त्र के बाह्य बंधनों से परे मानव निर्मित ज्यामीतियता प्रधान वस्तुओं के दृष्य प्रभावों का अनंत आकाष उनके चित्रों में है। कला सौन्दर्य की अपूर्वता वहां हैं। रंग और रेखाओं में भावों का अनूठा स्पन्दन। सौन्दर्य का उनका चित्रकहन कला की वैष्विक भाषा है। ऐसी भाषा जिसमें भारत के साथ ही तमाम दूसरे देषों की रेखाओं, रंगो, परिवेष और विचारों को जैसे गूंथा गया है। देष काल की सीमा से परे सौन्दर्य की उनकी कला अभिव्यंजना में सम्मोहन है। यह उनका कला सम्मोहन ही है जो जो हमें उनकी कलाकृति के आस्वाद के बाद भी उसके अनुभव से मुक्त नहीं होने देता है। कला की यही उनकी निजता है।

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