Monday, September 5, 2011

मूल के साथ कला का यह प्रतिकृति बाजार


मौलिक सर्जन को बहुत से स्तरों पर प्रसव वेदना के बाद के सुख से अभिहित किया गया है। सोचिए! इस अंतःप्रक्रिया के बाद कोई कलाकार अपनी निर्मिती की ही कहीं नकल पाता है तो उस पर क्या गुजरती होगी। आज के कलाबाजार का यही कड़वा सच है। असली के साथ ही 20 से 25 प्रतिषत कलाकृतियां आज बाजार में नकली बेची जा रही है। पिकासो, वॉन गॉग, सलवाडोर डाली, मार्क चगाल से लेकर रजा, हुसैन, मनजीत बावा, जे. स्वामीनाथन, सुबोध गुप्ता, अतुल डोडिया, अंजली इला मेनन की कलाकृतियों की बिक्री में जैसे असल-नकल का कोई भेद ही नहीं रह गया है।

कभी अंजली इला मेनन की ‘फीमेल हेड’ पेंटिंग की नकल के चर्चे खूब रहे थे और एस.एच. रजा उस दिन को शायद ही कभी भूल पाये होंगे जब उन्हें अपनी ही नकल की हुई कलाकृतियों के उद्घाटन अवसर पर याद किया गया था। अमेरिका की प्रतिष्ठित क्रिस्टीज और सोथबीज कलादीर्घाओं में भारतीय मूल के चौदह प्रख्यात कलाकारों की कलाकृतियों नकली होने के संदेह में उन्हें नीलामी सूची से हटाया गया तो ख्यात कलाकार अजय घोष की कलाकृतियों को नंदलाल बोस की कलाकृतियों बता कर बेचे जाने का मामला भी खासा चर्चित रहा है। गणेष पाईन के रेखाचित्रों की रंगीन फोटोप्रतियां को असली बताकर बेचे जाने ने तो कला मे नैतिकता के तमाम मूल्य जैसे बदलकर रख दिये हैं। नकल के इस गोरखधंधे में बारीकी इस कदर है कि बड़े से बड़ा कला पारखी ही नहीं बल्कि स्वयं कलाकार भी धोखा खा जाये।

याद पड़ता है, कभी हुसैन की राज श्रृंखला की पेंटिग ‘राजा और रानी’ को उनके बेटे ने चैन्ने की एक मषहूर कलादीर्घा में देखा तो पाया कि वह नकली थी। बाकायदा हुसैन ने तब समाचार पत्रों में अपील जारी की कि कला संग्राहक उनकी कलाकृतियों के असली होने की पुष्टि के लिये उनके रंगीन फोटोग्राफ भेजे परन्तु खुद हुसैन अपनी पेंटिंग की नकल की बारीकी को पकड़ नहीं पाये और धोखा खा गये।

बहरहाल, कला में नकल की इस प्रवृति का बड़ा कारण है तेजी से पनपता कला बाजार। यह ऐसा है जिसमें हैसियत के हिसाब से कलाकृतियां खरीदी और बेची जाती है। मषहूर कलाकारों के सहायकों और प्रषंसक कलाकारों ने भी इसे कम बढ़ावा नहीं दिया है। मसलन अंजलि इला मेनन के सहयोगी हामीद ने ही उनकी कलाकृतियों की नकल बाजार में पहुंचायी तो मनजीत बावा के सहायक महेन्द्र सोनी ने बावा की कलाकृतियां की नकल जमकर बेची। जे. स्वामीनाथन के चित्र बहुत कम लोगों के पास है परन्तु उनकी चिड़िया और पहाड़ श्रृंखला की नकल अमेरिका की प्रमुख आर्ट गैलरी बेचती पायी गयी। स्वामीनाथन के पुत्र संस्कृति समीक्षक कालीदास को इस बात का पता लगा तो उन्होंने नकली कलाकृति की निलामी रूकवाई। मजे की बात यह रही कि कलादीर्घा स्वामीनाथन की जिस चित्र शैली को 1966 का बता रही थी वह शैली असल में सत्तर के दशक में आयी थी।

मुझे लगता है, कला के इस गोरखधंधे के प्रति हमारे यहां अभी भी खास कोई सजगता नहीं है। यही कारण है कि असल के साथ नकल की प्रवृति निरंतर बढ़ती जा रही है। क्यों नहीं कला षिक्षा के अंतर्गत कला की असल-नकल पर भी चर्चा की जाये। तकनीकी तौर पर कलाकृति निर्माण में कलाकारों द्वारा ऐसा कुछ जरूर किये जाने की पहल की जाये जिससे वह स्वयं वह अपनी कलाकृति की असल-नकल को पहचान सके। क्यों नहीं कलाकृतियों की नकल संबंधी कॉपीराइट कानूनों की भी षिक्षा कला षिक्षण संस्थान अपने यहां दें। कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर और अमृता शेरगिल की कलाकृतियों को राष्ट्रीय धरोहर मानते हुए इनके निर्यात पर धरोहर और कलानिधि कानून 1972 के तहत रोक लगायी गयी थी परन्तु यह कानून भी अब इतना पुराना हो चुका है कि अपनी प्रासंगिता ही जैसे खो चुका है। आपको नहीं लगता, धड़ल्ले से हमारी राष्ट्रीय कलानिधियां अब विदेषों की कलादीर्घाओं की शोभा बनती जा रही है!

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