Friday, September 23, 2011

कैनवस और संस्थापन की नयी दीठ

इन्स्टालेशन माने संस्थापन। कला में विज्ञान, तकनीक और दर्शन  का एक प्रकार से मेल। तमाम तरह की वस्तुओं के विन्यास के साथ ही इर्द-गिर्द फैलायी चीजों से एक नया वातावरण पैदा करने का प्रयास। कला का यह आज ‘न्यू मीडिया’ है। कुछ और स्पष्ट कहूं तो कला का लोकतंत्र। ऐसा जिसमें माध्यमों-संसाधनों का किसी भी तरह से उपयोग करने के लिये कलाकार स्वतंत्र होता है। दर्शक  यहां दृष्टा भर नहीं होता, बल्कि बहुतेरी बार इन्स्टालेशन का हिस्सा भी हो जाता है।
जवाहर कला केन्द्र में भारत एवं कोरिया की समकालीन कला प्रदर्शनी ‘पिंक सिटी आर्ट प्रोजेक्ट 2011’ में कैनवस के साथ ही संस्थापन की भी बहुलता दिखाई दी। विडियो इन्स्टालेशन के साथ ही फाईबर ग्लास, पेपर, झाड़फानुस, पुराने दरवाजे और भी बहुत सारी चीजों से उभारी नये दौर की यह कला अपनी ओर जैसे बुला रही थी। भले वहां माध्यमों का अतिरेक था फिर भी संप्रेषण की दीठ का नयापन भी था। मसलन जयपुर की सड़कों पर चलने वाले रिक्साचालक का विडियो इन्स्टालेशन। पैडल पर पड़ते पैरों से उत्पन्न गति और ध्वनि दृष्य जेहन में तो बसता है परन्तु उसमें मोनोटोनी है। ली जून जीन द्वारा पर्दे पर प्रोजेक्टर के जरिये उभारे अर्थहीन बिम्बों को कहने भर को कला कहा जा सकता है। मुझे लगता है, संस्थापन के अंतर्गत कोरियाई कलाकारों में तकनीक का आग्रह अधिक है। इन्स्टालेशन की यही बड़ी सीमा है। तकनीक कला के संप्रेषण का हेतु तो हो सकती है परन्तु वह कला कैसे हो सकती है! नयेपन के नाम पर संस्थापन मे यह मनमानी सही नहीं है।
बहरहाल, विनय शर्मा का संस्थापन अर्थ गांभीर्य लिये संवेदना को झकझोरता है। रचनात्मक और विजुअल इन्स्टिंक्ट में पुरानी चीजों के अस्तित्व से भूत, भविष्य और वर्तमान के मायने जैसे रखे गये। पुरानी बहियों के पन्ने, नगाड़ों, लालटेन, कलम और दवात के ऊपर टंगे झाड़फानुस को रोशनी रंग देता आधुनिक प्रोजेक्टर और अंधेरे कमरे में आस-पास फैलायी ताजी दूब की गंध से सोच को जैसे पंख लगते है। ऐसे ही सुरेन्द्रपाल जोषी का संस्थापन भी संवेदना को नये आयाम देता है। फाइबर ग्लास, सूत की डोरियों में में झांकती रोषनी की परतों से उभरती जीवाश्म   सरीखी आकृतियां और कैप में उभरे नाखुनों के अंतर्गत वहां सृजन के सरोकारों की गहरी तलाष की जा सकती है। हां, कोरियाई कलाकार ली सेंग ह्यून का और ना सू यीओन का इन्स्टालेशन शहरों से जुड़ी स्मृतियों के जीवंत बिम्ब भी अलग से ध्यान खींचते लगे।
प्रदर्शनी में भारतीय-कोरियाई कैनवस में बहुत से स्तरों पर साम्यता की अनुभूति होती है। रंग और संवेदना के स्तर पर देखें तो कोरियाई कलाकार कोह अ बीन की जल रंगों में झांकती ‘अ टेल आॅफ चियोंग’, किम योंग क्वान की ज्यामीतिय संरचना, किम येंग ही के रंग कोलाज, किम क्योंग ए की ‘नेस्ट ऑफ  फोनिक्स’, किम यून जिन का स्त्रीआकृति के साथ ही सुधांशु  सूथार, कालीचरण गुप्ता, आलोक बल, मनीष शर्मा और बोस कृष्णमाचारी की कैनवस कलाकृतियां में निहित संवेदना के चक्षु देशों  की दूरियां जैसे पाटते हैं।
कला में इन्स्टालेशन  कोई नई बात नहीं है। भारतीय परम्पराओं में  तो संस्थापन की भरमार है। मेले, पर्व, अनुष्ठान, जन्माष्टमी सजाई और दुर्गा विसर्जन सब संस्थापन ही तो है। चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी में पश्चमी  कला जगत में दृक अनुभवों के अंतर्गत अलग-अलग चीजों, तत्वों को किसी एक अवकाश या स्पेश  में ले जाने की कला शैली कुछ-कुछ संस्थापन जैसी ही तो रही है। कभी मार्षल दूषां ने ‘युरिनल पोट" को प्रदर्शनी में बतौर ‘फाउण्टेन’ शीर्षक से शिल्प  करार देते परम्परागत मर्यादाओं को तोड़ते संस्थापन ही तो किया था।
दृश्य, ध्वनि, स्पर्श और शब्द के इन्स्टालेशन में विषय-वस्तु और फोरम  के कारण तताम तत्वो ंका संयोजन किसी एक संबंध में रूपान्तरित होता नये अनुभव का संवाहक होता है। यह जब लिख रहा हूं, भारतीय-कोरियाई कलाकारों की प्रदर्शनी  के अंतर्गत कैनवस और इन्स्टालेशन आर्ट में कला के वैश्वीकरण  को भी जी रहा हूं। आप क्या कहेंगे!

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