Friday, June 29, 2012

स्वर और लय की रस सृष्टि


संगीत माने स्वर और लय की कला। रस की सृष्टि। सुनने के रस की सृष्टि। आंग्ल भाषा में संगीत के लिये ‘म्यूजिक’ शब्द प्रचलित है। ‘म्यूज’ से बना है म्यूजिक। ‘म्यूज’ दरअसल यूनानी शब्द है। शब्द कोश खंगालता हूं तो म्यूज का अर्थ ‘द इन्सपायरिंग गॉडेज ऑफ सॉंग’ पाता हूं। माने गान की प्रेरक देवी। म्यूज ज्यौस की कन्या है। ज्यौस माने स्वर्ग। यानी संगीत स्वर्ग की कन्या है। सोचता हूं, संगीत रस का पान जब कर रहे होते हैं तो मन में स्वर्गिक सुखानुभति ही तो होती है। संगीत के लिये अरबी और फारसी में मौसीकी शब्द है। सुनने में ही संगीत का आस्वाद नहंी होता! 
बहरहाल, हमारे यहां गान की प्रेरक देवी सरस्वती है। संगीत के आदिदेव शिव हैं। इसीलिये तो नटराज स्तुति में कहा है, ‘गंभीर नाद मृदंगना धबके उरे ब्रह्मंडना, नित होत नाद प्रचंडना, नटराज राज नमो नमः। मााने यह संपूर्ण विश्व आपके मृदंग की ध्वनि से ही संचालित होता है। इस संसार में व्याप्त प्रत्येक ध्वनि के श्रोत आप ही हैं। हे नटराज आपको नमन है! 
संगीत की उत्पति वेदों से मानी गयी है। सामवेद तो संगीत से ही संबद्ध है। ऋग्वेद की ऋचाएं सामवेद का आधार है। वहां शब्द ऋग्वेद से लिये गये हैं और स्वर स्वयं का है। इस अर्थ में साम का अर्थ है ऋचाओ के आधार पर किया गया गान। 
ध्वनि, स्वर और ताल संगीत के ही अंग है। जो संगीतोपयोगी नाद है, वही ‘स्वर’ है। इसीलिये संगीतज्ञों ने एक स्वर से उसमें दुगनी ध्वनि तक के क्षेत्र में ऐसे संगीतोपयोगी कुल बाईस नाद बताये हैं। यही श्रुतियां हैं। ध्वनि की प्रारंभिक अवस्था यह श्रुतियां हैं और इनका गुंजन स्वर। स्व वह नाद है जो स्वयं मधुर हो। संगीत ग्रंथ ‘संगीत दर्पण’ में कहा गया है, ‘श्रुति के पश्चात उत्पन्न होने वाला स्निग्ध, अनुरणनात्मक, स्वयं रंजक नाद ‘स्वर’ है।’ ...और सात शुद्ध स्वरों का समूह जब बन जाता है तो वह सप्तक हो जाता है। नाद से श्रुति, श्रुति से स्वर, स्वर से सप्तक और सप्तक से थाट। थाट हैं-बिलावल, यमन, खमाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावरी, भैरवी, तोड़ी आदि। इन्हीें के अंतर्गत वर्गीकृत हैं तमाम हमारे संगीत के राग। राग माने स्वर और वर्ण से विभूषित चित्त का रंजन करने वाली मधुर ध्वनि। रागों का उनके अंगों के अनुसार विभाजन करने वाले पहले भारतीय संगीतज्ञ हैं पं. विष्णु नारायण भातखंडे। राग वर्णन के लियें उन्होंने ही हमें उठाव, चलन, पकड़, आरोह, अवरोह आदि का प्रयोग दिया। कहें, रागों का थाटों में विभाजन करते उसका विवरण दिया। ऐसा विवरण जिसमें ख्याल, धु्रपद, धमार, साधरा, तराना आदि रचनाएं निबद्ध होती है। कहें हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति के वह पहले ऐसे गायक थे जिन्होंने राग में पकड़ अंग का निर्माण किया।  भारतीय संगीत की उन्नति और प्रचार का महत्ती कार्य भातखंडेजी ने ही अपने तई किया। लखनऊ में उन्होंने ही कभी ‘मैरिस म्यूजिक कॉलेज’ की स्थापना की। यही कॉलेज आज उनके नाम से ‘भातखंडे यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूजिक’ के नाम से विश्वभर में जाना जाता है। ग्वालियर का माधव संगीत विद्यालय और बड़ौदा का संगीत महाविद्यालय भी उन्हीं की देन है।
बहरहाल, हमेशा की तरह इस बार भी पिछले सप्ताह विश्व संगीत दिवस आया और परम्परा निभाते संगीत आयोजनों की धूम भी मची। इन आयोजनों में संगीत रस का आस्वाद करते ही पं. विष्णु नारायण भातखंडे बहुत याद आए। संगीत सुनते और गुनते भातखंडे जी के संगीत अवदान को ही याद कर रहा था। सोचता हूं, उन्होंने ही तो भारतीय संगीत को क्रमबद्ध किया, व्यवस्थित किया। वह नहीं होते तो संगीत की हमारी समृद्ध विरासत के बहुत से पहलुओं से क्या हम यूं रू-ब-रू हो पाते!

No comments: