Friday, August 31, 2012

सभ्यता-संस्कृति की छाया कला दीठ



विश्व की प्राचीनतम और अब तक निरंतरता रखने वाली सभ्यता और संस्कृति में भारत के साथ चीन भी शुमार है। यह चीन ही है जिसका  लिखित इतिहास चार हजार वर्ष से भी पुराना है। माने अधुनातन विकास से ही नहीं अतीत की कला, साहित्य और संस्कृति से भी चीन अत्यधिक समृद्ध है। संस्कृति की उसकी निरंतरता को वहां के जन-जीवन, स्थापत्य, संगीत, नृत्य और तमाम दूसरी कलाओ में गहरे से अनुभत किया जा सकता है।
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में पिछले दिनों चीन की सभ्यता एवं सस्कृति से साक्षात् कराते नारायणी गुप्ता के छायाचित्रों की प्रदर्षनी लगी थी। सुखद यह था कि इसमें चीन के कलात्मक जीवन के किसी एक पहलू की बजाय तमाम आयामों को नारायणी ने अपने कैमरे की अपनी आंख से पकड़ते उसे सार्वजनीन किया है। 
मुझे लगता है, छायाकला रूपों की मौन मुखराभिव्यक्ति है। इसमें देखना ही महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि दृष्य के भीतर निहित सौन्दर्य की दीठ भी बेहद महत्वपूर्ण होती है। यह छायाकला ही है जिसमें अंतर्मन संवेदना के जरिये छायाकार बहुतेरी बार दृष्य मंे निहित सौन्दर्य को कईं गुना अधिक सघनता से मुखरित कर देता है। तब यथार्थ दृष्य की बजाय उसका कैमरे की आंख का संवेदन रूपान्तरण अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। नारायणी के छायाचित्रों के साथ यही है। वह देखे हुए दृष्यों की विषय-वस्तु के साथ घटना की संवेदना, क्षण की अपूर्वता और उसमंे निहित गति को अपने कैमरे में भीतर की अपनी संवेदना से पकड़ती है। इसीलिये बहुतेरी बार साधारण दृष्य भी उसके छायाचित्रों में संवेदना की छाया-कला दीठ से असाधरण प्रतीत होने लगते हैं। मसलन उसकी इस छायाचित्र प्रदर्षनी में एक दृष्य है सुन्दर से एक पूल का। चाईना के इस ब्रिज का नारायणी का कैमरा फ्रेम दृष्य में निहित सौन्दर्य को कईं गुना अधिक उद्घाटित करता है। इस तस्वीर में छाया-प्रकाष प्रभाव, कोण, दृष्य माप और गति का संतुलन अद्भुत है। पानी में उभरती ब्रिज की छाया और ठीक ब्रिज के नीचे चलती नाव और ऊपर पर्यटकों की रेलमपेल। देखता हूं तो, दृष्य संयोजन की यह दीठ मुग्ध करती है। आकाष की निलाई के साथ दृष्य संयोजन में नारायणी की छाया-कला सूझ को इस चित्र में गहरे से पहचाना जा सकता है। 
बहरहाल, दृष्य संवेदन के ऐसे ही छायाचित्र और भी हैं। संघई के सुप्रसिद्ध बौद्ध मंदिर में बुध की लेटी हुई प्रतिमा के चित्र को ही लें। इसमें नारायणी ने लेटे हुए बुद्ध के मौन और निर्वाण को गहरे से मुखरित किया है। खास बात यह कि प्रतिमा के साथ आस-पास का शांत परिवेष भी यहां उद्घाटित है। एक छायाचित्र में सिंघई के पुराने घरों का दृष्य है तो एक में कला संग्रहालय के संस्थापन का दर्षाव अतीत के साथ अधुनातन संस्कृति से रू-ब-रू कराता है। सिंघई के एंटिक बाजार में इमारतों का वास्तु षिल्प भी मन मोहता है। यह नारायणी के कैमरे की आंख की वह संवेदना ही है जिसमें बाजार की इमारतों से निकले छज्जों को परस्पर मिलाते वहां के वास्तु सौन्दर्य की सूक्ष्म अभिव्यंजना की गयी है। मुझे लगता है, वह छाया चित्रों में दृष्य के साथ तमाम उसकी दूसरी संभावनाओं को भी अपने कैमरे से पकड़ती है। ऐसा ही एक चित्र है छोटे से एक बच्चे का। चाईना के भविष्य से अभिहित इस छायाचित्र में सीढ़ियां, बच्चे की मासूमियत और भयमुक्तता के बहाने दृष्य के गहरे संवेदन आयाम हैं। दृष्य संवेदना की दीठ ही तो है छायाकला! टाईनामेन स्कवायर, चीन की दीवार, संगीत, नृत्य और चित्रकलाओं के साथ ही आधुनिक चीन के विष्व सरोकारों को भी बहुत से चित्रों में अभिव्यंजित किया गया है। कोई संस्कृति कैसे बरसों-बरस अपनी निरंतरता बनाये रखती है, कैसे वह संस्कारित होती है और कैसे उसमें कलाओं की अनुगूंज को सुना जा सकता है, नारायणी के छायाचित्रों में इसे गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। सोचता हूं, चीन की सभ्यता और संस्कृति के साथ ही नारायणी की छाया कला दीठ की भी तो संवाहक है यह छायाचित्र प्रदर्षनी। आप क्या कहंेगे!


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