Thursday, November 1, 2012

नया कुछ रचने की कला दीठ


कलाओं का आस्वाद मन को भीतर से भरता है। लगता है, कहीं कुछ रीता हरेक के भीतर होता है। कलाएं उसकी पूर्ति करती मन को उल्लसित करती है। पिछले सप्ताह जवाहर कला केन्द्र में बहुतेरी कला प्रदर्शनियांे का आस्वाद करते एक कलादीर्घा में पांव औचक ठिठक से गये। जयपुर के साथ हैदराबाद, भोपाल, इन्दौर, मुम्बई, दिल्ली, अजमेर आदि स्थानों के उभरते हुए कलाकारों की प्रदर्शित चित्रकृतियां में बहुत कुछ खास था। एक चित्र में वीणा पर विराजते गणेश की भंगिमा या कहूं उसका आभाष मन में घर कर गया। 
यह एब्सट्रेक्ट गणेश थे। पार्श्व के ग्रे रंग में उभरती यंत्र मानिंद सधी रेखाएं। सिंदूरी, काला, भूरा, सफेद और दूसरे बहुतेरे रगों के मिश्रण से उभरी रंग आभाओं में गणेश की कलम और कागज पर उभरी रचनाओं का उजास। सब कुछ वही नहीं जो लिखा गया है, कहूं उस सरीखा ही कुछ जेहन में उभरा। कैनवस के इस एब्सट्रेक्ट पर न जाने कितनी ही देर आंखे ठहरी  रही। पता चला, कला अध्ययन से जुड़ी जयपुर की पूजा शर्मा का बनाया है यह चित्र। रंग-रेखाओं के उजास में माइकल एंजेलो, पिकासो, राफेल और हुसैन सरीखे कलाकारों की कला को बांचते नया कुछ रचने की आधुनिक दीठ से जैसे साक्षात्कार हुआ। वह दीठ जिसमें कलाकार भीतर की अपनी आस्था को गहरे से स्वर देते हुए अपने समय से भी कहीं कटा नहीं है।
बहरहाल, राजधानी दिल्ली की ऑनलाईन आर्ट गैलरी ‘आर्टइन्फो’ के तहत लगी हुई थी यह महत्ती कला प्रदर्शनी-‘बोनहुमी’। बोनहुमी! माने? ‘आर्टइन्फो’ के सतेन्द्र गुप्ता से संवाद हुआ तो कहने लगे, यह फ्रंेच शब्द है। अर्थ है, साथ-साथ। मुझे लगता है, किसी शब्द का यही कला संस्कार है। विभिन्न देशों में और बल्कि भारत के बहुत से प्रांतों की भाषाओं में बहुतेरे ऐसे शब्द हैं जिनमें अद्भुत कला बोध है। इन्हें बरतते हुए सांगीतिक लय की अनुभूति की जा सकती है। अज्ञेयजी के डायरी लेखन में बरते ‘तितली’ शब्द और भिन्न भाषाओं में इसके कहन की याद ताजा हो रही है। इस्पानी में तितली को मारिपोजा और ग्रीक में पेतालूदिस कहा जाता है। शब्द को सुनकर जो कला बोध होता है, उसी में रमते अज्ञेय लिखते हैं, ‘...मानो अभी पंखुरी झरी।...और झरते-झरते हाइकू बन गयी।’ सोचता हूं, क्या ही अच्छा हो तमाम भाषाओं में लय अंवेरते ऐसे शब्दों को एकत्र कर कलाभिव्यक्ति का कोई अन्तर्राष्ट्रीय कोश तैयार किया जाए। अभी कल ही की तो बात है। राजस्थानी रचनाकार मित्र राज बिजारणिया ने फेशबुक में ‘चाळ भतूळिया रेत रमां’ अभिव्यक्ति की। शब्द की अद्भुत लय दीठ यहां नहीं है! यही तो है कला! आप कुछ पढें, सुनें, देखें तो भीतर की आपकी संवेदना जगे। मन को पंख लगे। कहीं और क्यों जाएं। हमारे आस-पास बहुत कुछ ऐसा है जिसमें कलात्मक बोध है। बस उसे पहचानें। उसमें रमें। पाएंगे, कुछ अद्भुत अनुभूत हुआ है। जो उसे गुनेगा, वही तो कुछ बुनेगा!
‘बोनहुमी’ कला प्रदर्शनी से गुजरते मैं भी जैसे यह सब गुन गया हूं। बहुतेरी बार यह होता है कि आप कुछ देखने जाते हैं और वहां और भी बहुत कुछ महत्वपूर्ण मिल जाता है। ‘आर्टइन्फो’ की कला प्रदर्शनी में प्रदर्शित चित्रांे के साथ उसकी ऑनलाईन कलादीर्घा की भी आभाषी यात्रा वहीं करने को मिल गयी। सुखद लगा, यह जानकर भी कि कोई ऑनलाईन गैलरी भिन्न माध्यमों मंे काम करने वाले 5 हजार के करीब कलाकारों की कला की वर्चुअल सैर करा रही है। कला में संवाद के साथ कला आयोजनों के श्रव्य-दृश्य चितराम भी वहां उपलब्ध है और भविष्य की योजना में संचार की इस तकनीक के जरिये हिन्दी में भी इसी तरह से कलाओं को आम जन से साझा करने की योजना है। 

2 comments:

pooja sharma said...

the article is nice.i like the aesthetical value of it. for me these are the best comments i have ever got.

pooja sharma said...
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