Tuesday, April 2, 2013

सांस्कृतिक परम्पराओं का कला उजास


म्यूरल माने भित्ति चित्र। दीवार पर उभरे रूपाकार। फ्रेस्को पंेटिंग। पारम्परिक भारतीय शब्दावली में इन्हें आलागीला, मोराकषी भी कहा जाता है। भारत में म्यूरल की समृद्ध परम्परा आरंभ से ही रही है। किले-महलों में राग-रागिनियों के चित्र और मूगल पेंटिंग के अंतर्गत भांत-भांत के चितराम म्यूरल के जरिए ही तो बहुत से स्तरों पर बचे हुए हैं। लोक संस्कृति तो समृद्ध ही भित्तिचित्रों से ही हुई है। मुझे लगता है, सांस्कृतिकपरम्पराओं, पौराणिक, सामाजिक इतिहास का वातायन भित्तिचित्रण से ही तो खुलता नजर आता है।केन्द्रीय ललित कला अकादेमी ने अपनी पत्रिका ‘समकालीन कला’ के एक अंक का अतिथि सम्पादक इस नाचीज को बनाया। अंक में लीक से हटकर कुछ सामग्री देने के प्रयास के अंतर्गत प्रख्यात चित्रकार शांति दवे से संवाद के लिए ग्रेटर कैलास स्थित उनके निवास स्थान पर जाना हुआ। उनके निवास पर लगी कलाकृतियों में रंग पट्टियों में उभरता षिल्प और म्यूरल्स में उभरती मिनिएचर पेंटिंग सदा के लिए जैसे ज़हन में बस गई। इसलिए कि म्यूरल्स में वह अक्षरों को काठ में डाल चिपकाते है। उनके म्यूरल्स में लिपि के टूकड़े सरीखे अलग से देखने वालों का ध्यान खींचते हैं। वहां रंग और रेखाएं हैं तो षिल्प का अहसास भी होता है। परम्परा में आधुनिकता की उनकी इस दीठ से ही म्यूरल को नई पहचान भी मिली। मुम्बई, दिल्ली हवाई अड्डों पर बनाए उनके म्यूरल इसीलिए आज भी देखने वालों को लुभाते हैं।
बहरहाल, कालिदास ने ‘मेघदूत’ की रचना नागपुर के समीप स्थत रामटेक नामक स्थल पर की थी। रामटेक स्थित कालिदास स्मारक जाना हुआ तो वहां की दीवारों पर उनके महाकाव्य ‘मेघदूत’ आधारित चित्रों से भी साक्षात् हुआ। लगा, महाकवि का गीतिकाव्य आंखो के सामने जीवंत हो उठा है। भित्तिचित्रों की यही विषेषता है।श्बहुतेरी बार चलायमान होते दृष्य संस्कृति से जैसे हमारा संवाद कराते हैं। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में भी प्रवेष करते हैं तो  प्रवेष कक्ष की चारों दीवारों पर बने म्यूरल औचक देखने वालों का ध्यान खींचते हैं। सतीष गुजराल, के.के. हेब्बार, ज्योति भट्ट और ष्यामबक्स चावड़ा जैसे मषहूर चित्रकारों द्वारा बनाए भित्तिचित्रों का अनूठा लोक विज्ञान भवन की अनुपम धरोहर है। अकबर द्वारा चलाए गए नवीन धर्म दीन-ए-इलाही, ह्वनेसांग की भारत यात्रा, फूलवालों की सैर और होली विषयों के म्यूरल देखते लगता है कला के सर्वथा नये लोक में हम प्रवेष कर गए हैं।
देष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कभी राजकीय इमारतों पर म्यूरल की शुरूआत की थी। इस सोच के साथ कि इतिहास में हमारी इमारतें कला की दृष्टि से शून्य और नगण्य मानी जाएगी, यदि वहां सांस्कृतिक परम्पराओं  का उजास नहीं होगा। भित्ति चित्रण को प्रोत्साहन के पीछे पंडित नेहरू का उद्देष्य यह भी था कि आम आदमी जिसका कला से सीधे कोई नाता नहीं हो, वह भी कला के संपर्क में आकर कला में रूचि ले सके। तब निर्णय यह भी लिया गया था कि प्रत्येक सरकारी इमारत के खर्च का दो प्रतिषत इमारत में कला समावेष पर रखा जाए। सरकार द्वारा तब एक अलंकरण समिति की भी स्थापना की गयी थी। समिति ने सर्वप्रथम सज्जा कार्य के लिए विज्ञान भवन को चुना और और इसके प्रवेष द्वार की चारों दीवारों के लिए अलग-अलग षीर्षक चुने गए। देषभर के प्रमुख सार्वजनिक स्थानों पर भी इसी संदर्भ में म्यूरल के जरिए हमारी परम्पराओं को संजोया गया। जयपुर रेलवे स्टेषन पर देवकीनंदन शर्मा का ढोला-मारू म्यूरल बरसों तक यात्रियों को लुभाता रहा है। वनस्थली कला मंदिर की दीवारों पर भी राजा पुलकेषी दरबार, बोधिसत्व, पदमपाणी और अन्य जातक कथाओं पर बनाये उनके आरायष अपनी मौलिकता में भित्ति चित्रों की हमारी समृद्ध परम्परा के संवाहक हैं।
क्या ही अच्छा हो, सरकारी इमारतों में म्यूरल के जरिए सांस्कृतिक परम्पराओ ंके उजास की पंडित नेहरू की पहल पर फिर से सरकारें विचार करे। इसी से हम हमारी संस्कृति को सदा के लिए बचा रख पाएंगे। 

1 comment:

MANISHADOHRE said...

VERY INFORMATIVE RAJESH JI....