Friday, May 31, 2013

शब्द संवेदना का दृश्य रूपान्तरण

कालिदास हमारे सांस्कृतिक वैभव के अनूठे चितेरे हैं। उनके लिखे में कलाओं के सौन्दर्यबोध की अन्तःसलिला सहज अभिव्यंजित हुई है। वन, प्रकृति के साथ नगर, प्रासादों के षिल्प-स्थापत्य का कालिदास ने अपने लिखे में अद्भुत चितराम ही तो किया है। लिखे में कला सौन्दर्य के उल्लसित भाव वह कुछ इस कदर उडेलते हैं कि बांचते हुए सब कुछ अनायास जैसे दृष्यमय हो जाता है। ‘मेघदूत’ को ही लें। प्रकृति प्रत्यय मेघ के जरिए प्रेम संदेष के साथ ही विरह वेदना की जो अभिव्यक्ति कालिदास ने इसमें की है, वह अनुपम है। संस्कृत छन्दों का अद्भुत लय-लालित्य। विरह वेदना का सांगीतिक आस्वाद। मुझे लगता है, कला और काव्य की समग्र पूर्णता कहीं है तो वह ‘मेघदूत’ में ही है। 
 ख्यात कलाकार कन्हैयालाल वर्मा ने इधर ‘मेघदूत’ को अपने उकेरे चित्रों में गहरे से जिया है। कालिदास रचित श्लोकों के सौन्दर्य में निहित भावों में जाते उन्होंने यक्ष की विरह वेदना, अलकापुरी के स्थापत्य को रंगो और रेखाओं से जीवंत किया है। रेखाआंे के गत्यात्मक प्रवाह में उन्होंने रंगो को घोलते श्रृंगार रस को जो चित्रात्मकता प्रदान की है वह अपूर्व है। 
‘मेघदूत’ का रम्य काव्य यूं भी आरंभ से ही कलाओं की प्रेरणा स्त्रोत रहा है। मेघदूत की कथा अलकापुरी के महाराज कुबेर की सेवा में रहने वाले यक्ष से जुड़ी है। कार्य दोष के कारण एक वर्ष के लिए उसे अपनी प्रियतमा से अलग रहना पड़ता है। रामगिरी पर्वत पर बिछोह काटते यक्ष की आषाढ़ माह में घुमड़ने वाले बादलों से विरह वेदना औचक बढ़ जाती है। वह मेघ से अपनी प्रियतमा को संदेश भिजवाता है। मेघ को दिया संदेश ही ‘मेघदूत’ की कथा का मूल है। कथा में आए अलकापुरी के महलों के स्थापत्य सौन्दर्य, भगवान शिव के भालचन्द्र की चांदनी, उमड़ते-घुमड़ते बादलों, हवाओं की उड़ान, पपीहे के गान के साथ ही कालिदास अभिव्यंजित तमाम प्रसंगों को कन्हैयालाल वर्मा ने अपने चित्रों में सांगोपांग स्वर दिया है। इस महाकाव्य को यू ंतो उन्होंने पूरा का पूरा ही अपने चित्रों में उकेरा है परन्तु उनके उकेरे कुछेक चित्र आंखों में बसते हैं। मसलन एक चित्र है जिसमें मेघ से की गयी यक्ष की अनुनय-विनय में कृषिक बालाओं के उनके सत्कार और खेतों में वर्षा करके प्रियतमा की ओर बढ़ जाने का आह्वान है। अलंकृत मेघों के वृत्त के पाश्र्व का नीला-काला रंग और उसके अंदर कृषक बालाओं का मनोहारी चितराम।  उड़ते पखेरू और बरसते जलज! धरित्री का क्रोड। ऐसा ही एक और चित्र है जिसमें चातक पक्षी के चांेच ऊपर करके पानी की लेती बूंदों और मेघों की गर्जना से डकर सहचरियों से आंलिगनबद्ध होते पुरूषों को अभिव्यंजित किया गया है। चित्र नहीं चित्र कोलाज। रंग-रेखाओं की रूप गोठ। चित्र और भी हैं। प्रदोषकाल में भगवान आशुतोष की भव्य आरती, घनघोर अंधेरे में बिजली रूपी रेखा की चमक, पुष्प बरसाते मेघ, नटेश के अट्टहास की रूप व्यंजना, शिव-पार्वती विचरण, यक्ष के वियोग में उनींदी पृथ्वी पर लेटी उसकी प्रियतमा। इन सबमें कन्हैयाल वर्मा ने कालिदास के श्लोकों के सौन्दर्य का अद्भुत चित्र रूपान्तरण किया है। ऐसा करते वह यक्ष की विरह वेदना में निहित संवेदना के मर्म को भी गहरे से छुआते हैं। 
सच! वर्मा कालिदास लिखित सौन्दर्य के सत्यान्वेषक हैं। चित्रांे में उन्होंने कालिदास लिखित सांस्कृतिक वैभव को ठौर-ठौर उद्घाटित ही नहीं किया है बल्कि रंगीय योजना, आकार संयोजन, प्रकाश पुंजों, छाया प्रभाव और कोण सज्जा में गहरे से जिया है। कालिदास कला अंर्तसंबंधों के संवाहक है। उनके लिखे शब्द दर शब्द को चित्रों में उभारते कन्हैयाला वर्मा ने इसीलिए तो रंग-रेखाओं में संगीत के सुरों की अनुभूति करायी है। भाव-भंगिमों नृत्य रस को भी जीवंत किया है। मुझे लगता है, कालिदास ने शब्द सौन्दर्य की अद्भुत कला सर्जना की है तो कन्हैयालाल वर्मा ने उस सौन्दर्य को अपने चित्रों से संस्कारित किया है।


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