Tuesday, February 4, 2014

कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध



संगीत में स्वरों से भाव सृष्टि है तो चित्र में रूप-रेखाओं से। हमारे यहां तो स्वरों में भी रंगों का उल्लेख है। राग-रागिनियों का चित्रात्मक प्रदर्शन इसी का द्योतक है। मुझे लगताहै, कलाएं कलाकार की स्वानुभूति को रूपायित करती है। पर यह ऐसे ही नहीं होता। इसके लिए साधनारत होना पड़ता है। अपनी कला ही नहीं दूसरी कलाओं में भी जाना होता है। प्रकृति को अनुभूत करना होता है। इसी से मन के संवेग रंग-रेखाओं के साथ संगीत, नृत्य, नाट्य में परिणत होते हैं। तभी कोई कलाकृति समग्रता में हमें लुभा पाती है। 
सर्बरी राय चैधरी ने अपनी मूर्तिकला में बहुत से स्तरों पर संगीत की दृश्य छवियां निर्मित की हैं। यह ऐसी हैं जिनका आस्वाद करते संगीत से जुड़ी स्मृतियां औचक ही मन में झंकृत होने लगती है। इसके पीछे शायद उनकी वह दृष्टि रही है, जिसमें एक कला दूसरी कला को अपने तई अंवेरती है। एक दफा वह प्रख्यात सरोदवादक अली अकबर खां को अपनी मूर्तिकला में ढालना चाह रहे थे। उन्होंने देखा, वाद्य बजाते तो उनका चेहरा पूरी तरह बदल जाता। वह पूरी तरह से तल्लीन और केन्द्रित हो जाते। मानो किसी चिंतन में गहरे डूब गए हों। सर्बरी राय चैधरी लिखते हैं, ‘जब भी उन्हें वाद्य बजाते देखता, बुद्ध की तस्वीर नियत ढंग से मेरे दिमाग में बैठ जाती। मैं उस दृश्य को कैद करना चाहता था। इसीलिए मैंने उन्हें ऐसी मुद्रा में बैठने का आग्रह कर राजी किया। पर चेहरे का वैसा हाव-भाव मुझे दिखाई तब भी दिखाई नहीं दिया। दूसरे दिन उनका बेटा ध्यानेश उन्हीं का अनुकरण करते सरोद बजा रहा था। उसने गलत धुन बजाया। और बस मैंने पा लिया। मुझे जिस दृश्य की तलाश थी, मुझे मिल गया। मैं सम्मोहित हो गया। मेरे लिए यह ईश्वर को पा लेने जैसा था। मैंने उनकी मूर्ति बना ली।’


डेली न्‍यूज, 31 जनवरी, 2014

जिस दृश्य छवि को मूर्तिकार पाना चाहता था, उस्ताद अली अकबर खां को वैसी ही छवि में मूर्ति बनाने के लिए बैठाया भी गया परन्तु तब वह छवि अपनी कला के लिए कलाकार नहीं पा सका। क्यों? इसलिए कि कला में जो कुछ दिखाई देता है-वही सच नहीं होता। बड़ा यथार्थ वह नहीं होता जो हम देख रहे होते हैं, वह होता है जो देखने के बाद हमारे मन में घट रहा होता है। आनंद कुमार स्वामी ने शायद इसीलिए कलाओं को ट्रांसफाॅर्मेशन कहा है। क्योंकि वहां देखे हुए की नकल नहीं होती। वह रूपान्तरण होता है। एक प्रकार से पुनसर्जन। यह प्रभावी तभी होता है जब कलाकार का नाता अपनी कला से ही नहीं होता बल्कि तमाम दूसरी कलाओं से भी होता है। वह अपनी कला में रम रहा होता है परन्तु दूसरी कलाएं उसके लिए तब प्रेरणा के रूप में सर्जन को संवारने का काम कर रही होती है। यही किसी कला की समग्रता भी है।
कहते हैं, राजा रवि वर्मा सुबह चार बजे उठकर चित्र बनाते थे। प्रकाश-छाया के सूक्ष्म अध्ययन और आकलन के लिए यह समय शायद उनके लिए सर्वथा उपयुक्त रहता होगा। अंधेरे की विदाई, उजास का आगमन। प्रकृति की यात्रा दीठ के संवाहक बनकर ही उन्होंने प्रकाश-छाया को अपने चित्रों में जीवंत किया। कलाकार जब तक प्रकृति में घुले रंगों से तादात्म्य नहीं करेगा, वह अपने तई रंग-रेखाओं से चाहकर भी दृश्य की जीवंत छवियां उकेर ही नहीं पाएगा। माने प्रकृति में निहित जो कला है उससे भी कलाकार अपने को जोड़े। इसी से उसकी कला समृद्ध होगी। एक कला इसी तरह दूसरी कला को सदा समृद्ध करती है।



No comments: