Friday, February 14, 2014

कला मेला बने उत्सवधर्मिता का संवाहक


 कलाकृति : चिंतन उपाध्याय 
राजस्थान ललित कला अकादमी का कला मेला इस बार जवाहर कला केन्द्र के शिल्प ग्राम में हुआ। पिछली बार यह रवीन्द्र मंच पर हुआ था। इस बार मेले के स्टाॅलों पर सजी कलाकृतियों का आस्वाद करते लगा, स्थान विशेष की बजाय कलाकृतियों का अब वैश्विक मुहावरा बनता जा रहा है। कलाओं में रूपायन की विविधता जैसे सिमटती जा  रही है। कहीं ओर जो हो रहा है-वही हर छोर हो रहा है। वैश्विकरण के फायदे भी हैं परन्तु बड़ा नुकसान यह भी है कि विविधता की हमारी समृद्ध धरोहर से हम इसके कारण निरंतर वंचित भी होते जा रहे हैं।
बहरहाल, कला मेले का यह लाभ तो है कि राज्यभर के कलाकारों से एक स्थान पर ही संवाद, भेंट का अवसर हो जाता है। परन्तु कला मेले के आयोजन का जो तरीका है, मुझे लगता है उसमें बदलाव की दरकार है। कलाकारों से यह सुनना कि मेले में उनकी कलाकृतिया बिकी नहीं और इस दृष्टि से कलामेले की उपयोगिता पर बहस गैरजरूरी है। कलाकृतियां बिके पर कलामेलों में यह कार्य आर्ट गैलरी करे तो अधिक बेहतर है। बाजार में कलाकार स्वयं ही अपनी कलाकृतियां बेचने बैठ जाएगा तो फिर दूसरी वस्तुओं और कलाकृतियों के विक्रय में भेद ही क्या रह जाएगा! यह समझने की जरूरत है कि कलाकार बाजार का वह विक्रेता नहीं है जिसका उद्देश्य वस्तु को बेचकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। ऐसा ही अगर होगा तो फिर मेले में बिकने वाली कलाकृतियों में खरीदार की पसंद को लेकर ही भविष्य में कलाकृतियां सृजित नहीं होगी। यह अगर होता है तो फिर क्राफ्ट-कला के भेद का क्या होगा! आम तौर पर जिन कला मेलों में सम्मिलित होता रहा हूं, वहां पर कलाकृतियां तो होती है परन्तु कलाकारों को वहां अपनी कलाकृतियां बेचते नहीं देखा। आर्टगैलरी स्टाॅल लेती है, वहां जरूर अपनी कलाकृति के साथ बहुतेरी बार सबंधित कलाकार मिल जाता है। यही होना भी चाहिए। कलाकार इतना दीन-हीन नही ही दिखना चाहिए कि वह स्वयं स्टॅाल बुक कराए, उस पर बाकायदा बैठे और फिर अपनी कलाकृतियों की दर्शकों के लिए नुमाईश करे। 
राजस्थान ललित कला अकादमी की अध्यक्ष श्रीमती किरण सोनी गुप्ता स्वयं कला संवेदना से लबरेज व्यक्तित्व है, कलाकार है। कलाओं पर मौलिक सोच भी वह रखती ही हैं। ऐसे में उनके जरिए वर्षों से अकादमी में इस तरह की चली आ रही परम्पराओं में बदलाव की अपेक्षा तो बनती ही है। क्यों नहीं यह हो कि कला मेला हो परन्तु वहां कलाकार स्टाॅल पर बैठे रहने से मुक्त हो। वह सम्मान से वहां आए, अपने परिजनों को भी लाए और समूह में प्रदर्शित अपनी कलाकृतियांे का चाव से उन्हंे आस्वाद कराए। कला फिल्मों का दर्शक बनते कला बारीकियों में जाए, अपने तई कलाओं के संवाद में हिस्सा भी ले। यह हो सकता है। अकादमी को यह भर करना है कि कलाकारों से मेले के लिए कलाकृतियां मंगवाई जाए। जवाहर कला केन्द्र कलादीर्घाओं में बाकायदा उनका प्रदर्शन हो और शिल्पग्राम तब कला संवाद का मंच बने। आर्ट गैलरी, शिक्षण संस्थाओं, कला पुस्तक विक्रेताओं, कला प्रशिक्षण संस्थानों को अकादमी स्टाॅल दे और यह सब कलाकारों की कलाकृतियां का विपण्पन करे। कला प्रदर्शनी के साथ मेले में प्रतिदिन कलाओं की नवीन उभर रही प्रवृतियां, परम्परागत धरोहर और तमाम दूसरे विषयों पर कलासंवाद, फिल्म प्रदर्शन जैसी गतिविधियां की जा सकती है ताकि कलाओं पर लिखने वाले, कलाकार और कलाप्रेमियों के बीच संवाद की रहने वाली कमी को पाटा जा सके। 
कलाएं व्यक्ति में उत्सवधर्मिता का संचार करती है। कला मेलों के आयोजन का उद्देश्य भी शायद यही है तो फिर क्यों न इसके लिए अकादमी अपनी चली आ रही परम्पराओं में बदलाव कर कला के लिए कुछ सुखद की संवाहक बने!

2 comments:

Anonymous said...

I really agree with your views on Kala Mela.... It need a Great change regarding the call of entries and stalls bookings etc in Kala Mela.... The Art scenario has changed now Kala Mela also required so.

vidhyasagar said...

thanks for positive view point on KALAMELA,now we need a dynamic group of artist can come forward and put there effort for making this event more interesting and fruitful not just MELA should be KALAMELA . only artists can do it.