Friday, February 7, 2014

शास्त्रीय चिन्तन से जुड़ी कला

      डॉ. चित्रा शर्मा निर्मित वृत चित्र-कत्थक का रायगढ़ घराना

चित्रकला, मूर्तिकला, छायांकन या फिर ऐसी ही किसी अन्य दृश्य कला में सादृश का अर्थ यथार्थ का अनुकरण है, वास्तव का बिंब। परन्तु अनुकरण कैसा? लौकिक नहीं। अनुकरण वह जिसमें अमूर्त को मूर्त करने के संदर्भ निहित होते हैं। संगीत को चित्र में कैसे परिवर्तित करेंगे? वह तो अमूर्त है।...नृत्य की किसी भंगिमा को अमूर्त कैसे कहेंगे? वह तो दिख रही होती है! मुझे लगता है, मूत-अमूर्त हमारी मन:सिथति है। इसीलिए तो संगीत के अमूर्त को हर छोटे से छोटे भाग में, अंश में उसके स्वभाव को जब सांगीतिक रूप में खोजा जाएगा तो वह संगीत का चित्रण होगा। ऐसे ही नृत्य की की किसी भंगिमा में जुड़े कहन के किसी संदर्भों की तलाश करेंगे तो दृश्य में अदृश्य की खोज औचक ही हो जाएगी। नृत्य का अमूर्तन उसके रचे भाव छंदो में ही तो है!
बहरहाल, कथक के रायगढ़ घराने पर डा. चित्रा शर्मा ने अदभुत वृत्तचित्र दूरदर्शन के लिए बनाया है। इसका आस्वाद करते लगता है, कथक किसी भी घराने का हो, वह शास्त्रीयता के संदर्भों में जीवन के मर्म और संवेदनाओं को हमारे समक्ष उदघाटित करता है। वृत्तचित्र में राजा चक्रधर सिंह और उनके द्वारा प्रवर्तित कथक के रायगढ़ घराने पर सृक्ष्म सूझ है। संगीत, नृत्य मर्मज्ञ लेखिका डा. चित्रा शर्मा कथक के रायगढ़ घराने के अतीत में ले जाती हुर्इ कथक में नृत्य से जुड़े शब्दों के संस्कृत शास्त्रों की बारीकियों से रू-ब-रू कराती है। कथक नर्तकों से संवाद के जरिए, उनकी नृत्य प्रस्तुतियों के जरिए और हां, स्वयं के अनथक शोध के जरिए भी। कथक से जुड़े संदर्भों की भरमार तो खैर दूरदर्शन के उनके उस वृत्तचित्र में है ही पर बड़ी बात उसमें निहित कथक के रायगढ़ घराने से जुड़े अछूते वह संदर्भ हैं जिनमें कथक की शास्त्रीयता के साथ कहन की लय को अंवेरा गया है। चित्राजी ने राजा चक्रधरसिंह प्रवर्त कथक में बंदिषों, तोडो, परन आदि के साथ जो कुछ नया जोड़ा गया, उसके बारे में बहुत कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां दी है। यह जानकारियां भी संवाद के जरिए नहीं है बलिक नृत्य की भाव-भंगिमाओं के जरिए देने का प्रयास किया है। मैं मसझता हूं, किसी भी दृश्य चितराम के अमूर्त निहितार्थ यही है कि थोड़े में बहुत कुछ कहा जाए। ऐसा जिससे दृश्य के साथ-साथ उससे जुड़ा तमाम भी अमूर्त में आंखों के समक्ष जीवंत हो उठे। इस दीठ से कथक के रायगढ़ घराने पर चित्राजी के दूरदर्शन के लिए किये इस कार्य की कूंत होनी भी जरूरी है। इसलिए कि नृत्य, संगीत में जो कुछ होता है-अभी तक वह कुछेक लोगों की ही जैसे जागीर बन गया है।
डेली न्यूज़, 7 फरवरी, 2014 
रायगढ़ घराने के कथक की अमूर्तता में जाएंगे तो कथक के जयपुर घराने की भी याद आती है। जयपुर घराने में पांवो से शुद्ध बोल निकासी पर जोर है। माने हर बोल पैर से निकाला जाता है। पद संचालन पर वहां अधिक ध्यान है। लय बांधते हुए नर्तक पैर की भाषा जैसे रचता है। और यह भाषा अमूर्त होते हुए भी दृश्य के अनंत संसार से हमें रू-ब-रू कराती है। और फिर यह भी तो है कि कथक में नर्तक भाव-मुद्राओं से पूरी कहानी नहीं बांचता है। वह उसमें निहित किसी एक क्षण को ही जीवंत करता है। यही नृत्य का वह अमूर्तन है जिसमें दृश्य की किसी एक झलक की स्मृति भर जगायी जाती है।
कथक हमारे शास्त्रीय चिंतन और सरोकारों से जुड़ी कला है। डा. चित्रा शर्मा कहती हैं, 'लोकनाटयों की समृद्ध परम्परा को नृत्य की शास्त्रीय परम्परा से जोड़ा जा सकता है पर नाटय प्रस्तुतियों के साथ कोरियोग्राफी का खेल ही यदि नृत्य में होता है तो वह संस्कृति के साथ धीरे-धीरे अपसंस्कृति का प्रवेश ही होगा। इधर कथक के नाम पर जो कुछ अनर्गल हो रहा है, उसका सच क्या यही नहीं है! 



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