Friday, February 28, 2014

रंग परतों के अनूठे बिम्ब


कलाएं यथार्थ में जो दिख रहा है, उसके अन्र्तनिहित सच में हमें प्रवेश कराती हैं। माने वहां दृश्य से अधिक अदृश्य की सत्ता होती है। शायद इसीलिए कोई चित्र हम देख रहे होते हैं तब और उस देखने के बाद के अन्तराल मंे दृश्य की हमारी अनुभूतियां बदल जाती है। अभी बहुत समय नहीं हुआ, कला प्रदर्शनी में देश के ख्यात चित्रकार यूसुफ  के चित्रों का आस्वाद किया था। लगा, उनके चित्रों की रेखाओं का उजास और रंगालेप लीक से हटकर दृश्य अनुभूतियों के अनछूए संदर्भों से हमें साक्षात् कराता है। कैनवस पर वह जो रचते हैं, उसकी बड़ी विशेषता यह भी है कि वहां पक्षी, रूंख, जीव जंतुओं, कीट-पतंगों सरीखी आकृतियांे की अनुभति तो बहुत से स्तरो ंपर होती है परन्तु ठीक से यह नहीं कहा जा सकता कि जो कुछ उन्होंने मांडा हैं, वह वही है। माने उनके चित्र दृश्य जगत से जुड़ी संवेदनाओं की मन में बढत करते हैं। बल्कि कहें, देखने के बाद के समय में भी उनके चित्र मन में निरंतर ध्वनित होते हैं। आप चित्र देखते हैं तो कुछ अंतराल बाद फिर से उसे देखने का आपका मन करेगा। 
यह ‘देखना’ ही उनकी कला का मूल है। स्वयं युसुफ के लिए भी और देखने वाले के लिए भी।
बहरहाल, यूसुफ  चित्र दिखाते नहीं, बंचाते हैं। माने जो कुछ वह कैनवस पर सृजित करते हैं, उसे देखा ही नहीं रेखाओं की लय में पढ़ा जा सकता है।  न जाने क्यो मुझे उनके चित्रों का आस्वाद करते रवीन्द्र नाथ ठाकुर के चित्रों की याद हो आती है। रवीन्द्र की ही भांति यूसुफ के चित्रों में  पक्षी की जो आकृतियां मंडी हैं, उस पक्षी की ठीक से कोई पहचान हम नही ंकर पाते हैं। ऐसे ही जो दूसरी आकृतियां हैं, वह हमारे परिवेश का जाना-पहचाना हिस्सा तो लगती है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि वह हैं क्या? उनक चित्रों में जो कुछ है वह उड़ान लिए या फिर तैरते हुए से है। तितली, पक्षी, भुजाएं फैलाए मानव, कीट-पतंगे और भी इस तरह की रेखाओं के जाल में उलझी-सुलझी बहुत सी आकृतियां। तानों में रचे रंग छन्द! परत दर परत रंगालेप। 

एक चित्र है जिसमें करीने से मांडी हुई लाईनें हैं-सीधी सट। रेखा पाश्र्व को भूरे गहरे रंगों में संयोजित करते यूसुफ ने नीचे से ऊपर या कहें ऊपर से नीचे एक श्रृंखला में पक्षी सरीखी आकृतियां रची है। ऐसे ही एक अन्य चित्र में सुनहरे पाश्र्व में भी रेखाएं है परन्तु इनसे जो उभरे दृश्य हैं उनसे खिड़की, दिवार और दरवाजों सा कुछ दृश्य सामने प्रकट होता है। ऐसे ही एक अन्य में उड़ान है परन्तु वहां इस उड़ान में संयोजित बहुतेरे घुले रंगों के थक्के दृश्य के भीतर भी बहुत से दूसरे दृश्यों को समेटते पृथ्वी, जल और आकाश को ही जैसे रच रहे हैं। 

आकृतियों की ऐसी अनुभूतियां और भी होती हैं जिनमें करीने से लोक चित्रों सरीखी चैकोर सज्जा और बीच में गोल्डन में गोल। और फिर रेखा विभाजन। मुझे लगता है, यूसुफ  के चित्र परतों में निहित सौन्दर्य के संवाहक हैं। वह कैनवस पर पारदर्शी रंग परतों में आकृतियों के अनूठे बिम्ब हमारे समक्ष रखते हैं। रेखाओं की सौन्दर्य लय अवंेरते वह पारदर्शी सतहों में बहते रंगों को रोकते झीनेपन में अपने को सिरजते हैं। सहसा कबीर की स्मृति होती है। रंगालेप देख कबीर की साखियां मन में गूंजने लगती है। चित्र हैं परन्तु उनमें कबीर सा फक्कड़पन भी है। आकृति का कोई मोह जो वहां नहीं है। रेखाओं के ताने-बाने में बुनी अर्थ के आग्रह से मुक्त रूपाकृतियों का सुनहरा लोक ही तो है यूसुफ  के चित्र।

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