कलाएं शिक्षण में बोझिलता को दूर करती है। संस्कारों की सूझ देती हुई। यह है तभी तो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या में कुछ समय पहले शिक्षण में कलाओं को जोड़े जाने की बात कही गई थी। पर कुछेक संस्थानों को छोड़ अधिकांश में अभी भी यह दूर की कौड़ी है। प्रतिवर्ष शिक्षण संस्थाओं से युवाओं की जो खेप निकलती है, उसका अंतिम लक्ष्य नौकरी प्राप्त करना भर होता है। पढ़ाई शायद इसीलिए व्यक्तित्व निर्माण, संस्कारों की खेती नहीं कर पाती और जिन्हें नौकरी नहीं मिलती वे युवा भटक भी जाते हैं। पढ़ाई नौकरी की विवशता नहीं, संस्कारों की संवाहक बने। स्वाभाविक ही है, कलाओं से जुड़ाव इसमें मदद कर सकता है।
उच्च शिक्षण संस्थानों में अतिथि अध्यापन के अंतर्गत निरंतर जाना रहता है और पाता हूं, बोझिल पढ़ाई की यंत्रणा जैसे वहां चेहरों पर झांक रही है। पर देखता हूं, कला संस्कृति से जुड़ा कोई आयोजन वहां होता है तो विद्यार्थी खिल-खिल जाते हैं।सोचता हूं, क्या ही अच्छा हो इस तरह का उल्लास शिक्षण के दौरान भी रहे। यह कठिन नहीं है, बशर्ते तकनीक में कलाओं का छोंक भर लगा दिया जाए। मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में छायांकन के कला सरोकारों पर विद्यार्थियों को व्याख्यान देने के लिए इस बार जाना हुआ तो इसे गहरे से महसूस किया। कक्षा में दाखिल हुआ था तब चेहरे बुझे-बुझे साफ दिखाई दे रहे थे। जैसे कह रहें हो, ‘लो...झेलो, फिर एक पाठ! सच भी है, सुनने की विवशता उदासी ओढाती है। पर जब किस्से-कहानियों में उनसे बतियाया, कला-संस्कृति के उनके भीतर बसे संसार को बाहर निकाला तो पता ही नहीं चला कब मिनट घंटो में तब्दील हो गए। दो घंटे बीते तो, सुकून इस बात का नहीं था कि संप्रेषित हुआ हूं, यह था कि बूझे चेहरे खिले हुए थे। सोचता हूं, पढाई में कला संस्कृति सरोकार जुड़ेंगे तभी ना यह सुनना यंत्रणा भरा न होगा। छायांकन तकनीकी शिक्षा का अंग है पर उसका अध्ययन कैमरे रूपी यंत्र की समझाईश भरा ही होगा तो उसके कला सरोकार गौण नहीं हो जाएंगे!
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